GSSS BINCHAWA

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GSSS KATHOUTI

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4.महासागरों और महाद्वीपों का वितरण

महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत
महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत का प्रतिपादन जर्मन मौसमविद अल्प्रेफड वेगनर ने सन् 1912 किया। यह सिद्धांत महाद्वीप एवं महासागरों के वितरण से संबंधित है वेगनर के अनुसार आज के सभी महाद्वीप कार्बोनिफेरस युग में आपस में जुड़े हुए थे इस बड़े महाद्वीप को पैंजिया का नाम दिया । पैंजिया का अर्थ है- संपूर्ण पृथ्वी। यह पैंजिया एक बड़े महासागर से घिरा हुआ था । इस विशाल महासागर को पैंथालासा कहा गया जिसका अर्थ है-जल ही जल। वेगनर के अनुसार लगभग 20करोड़ वर्ष पहले इस बड़े महाद्वीप पैंजिया का विभाजन आरंभ हुआ। यह पैंजिया पहले दो बड़े भागो में विभाजित हुआ । उत्तरी भाग लारेशिया (अंगारालैण्ड) और दक्षिणी भाग गोडवानालैंड कहलाया । इन दोनों स्थलीय भागो के बीच एक उथला व संकीर्ण महासागर बना जिसे टेथिस सागर कहते है लारेशिया (अंगारालैण्ड) के विभाजन से उत्तरी अमेरिका तथा यूरोप व एशिया महाद्वीप बने तथा गोंडवानालैण्ड के विभाजन से दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका, प्रायद्वीपीय भारत, मेडागास्कर द्वीप तथा आस्ट्रेलिया बने।
महाद्वीपीय विस्थापन के पक्ष में प्रमाण 
1. महाद्वीपों में साम्य
दक्षिण अमेरिका व अफ्रीका के आमने-सामने की तटरेखाएँ अद्भुत व त्रुटिरहित साम्य दिखाती हैं । दक्षिणी अमेरिका में ब्राजील का अफ्रीका की गिनी की खाड़ी में भली-भाँति सटाया जा सकता है। इसी प्रकार अटलांटिक महासागर के पूर्वी तथा पश्चिमी तटों की रूप-रेखा को देखने से यह प्रतीत होता है कि ये सभी स्थल पहले इकद्ठे थे। 
2. महासागरों के पार चट्टानों की आयु में समानता
दक्षिण अमेरिका व अफ्रीका के अन्धमहासगारीय तटो में समानता मिलाती है इन दोनों किनारो पर  पाए जाने वाले समुद्री निक्षेप जुरेसिक काल के हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि कभी ये महाद्वीप मिले हुए थे और इनके बीच अन्ध महासागर की उपस्थिति वहाँ नहीं थी।
3. टिलाइट 
हिमानी निक्षेपण से निर्मित अवसादी चट्टानें टिलाइट कहलाती हैं। ये चट्टानें गोंडवाना लैंड के छः भागों भारत, अफ्रीका, फॉकलैंड द्वीप, मैडागास्कर, अंटार्कटिक और आस्ट्रेलिया में मिलती हैं। इन स्थाल्खंडो पर हिमावरण का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है इससे यह सिद्ध हो है कभी ये सभी भूखंड एक ही स्थलखंड के भाग थे 
4. प्लेसर निक्षेप 
अफ्रीका के घाना तट पर सोने के बड़े निक्षेप मिलते है सोनायुक्त शिराएँ दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप के ब्राजील में पाई जाती हैं। अतः यह स्पष्ट है कि घाना में मिलने वाले सोने के निक्षेप ब्राजील पठार से उस समय निकले होंगे, जब ये दोनों महाद्वीप एक दूसरे से जुड़े थे।
5. जीवाश्मों का वितरण 
‘लैमूर’भारत, मैडागास्कर व अफ्रीका में मिलते हैं, कुछ वैज्ञानिकोंने इन तीनों स्थलखंडों को जोड़कर एक सतत् स्थलखंड ‘लेमूरिया’ की उपस्थिति को स्वीकारा। मेसोसारस नाम के छोटे रेंगने वाले जीव केवल उथले खारे पानी में ही रह सकते थे- इनकी अस्थियाँ केवल दक्षिण अफ्रीका के दक्षिणी केप प्रांत और ब्राजील में इरावर शैल समूह में ही मिलते हैं। ये दोनों स्थान आज एक दूसरे से 4,800 कि0मी0 की दूरी पर हैं और इनके बीच में एक महासागर विद्यमान है।
प्रवाह संबंधी बल 
वेगनर के अनुसार महाद्वीपीय विस्थापन के दो कारण थेः
1. ध्रुवीय फ्रलीइंग बल 
2. ज्वारीय बल 
ध्रुवीय फ्रलीइंग बल पृथ्वी के घूर्णन से सम्बंधित है। ज्वारीय बल सूर्य व चंद्रमा के आकर्षण से संबद्ध है, जिससे महासागरों में ज्वार पैदा होते हैं। वेगनर का मानना था कि करोड़ों वर्षों के दौरान ये बल प्रभावशाली होकर विस्थापन के लिए सक्षम हो गए । 
संवहन-धारा सिद्धांत
संवहन-धारा सिद्धांत का प्रतिपादन आर्थर होम्स ने किया संवहन-धरा सिद्धांत के अनुसार मेंटल में उपस्थित रेडियो एक्टिव (रेडियोधमी) तत्वों में ताप की भिन्‍नता के कारण  संवहन धाराएँ उत्पन्न होती है ये धाराएँ चक्रीय प्रवाह के रूप में संचालित होती रहती हैं। इस प्रकार पूरे मैंटल भाग में इस प्रकार की धाराओं का एक तंत्र विद्यमान है। जब धाराएं एक स्थान से दो विपरीत दिशाओं की ओर बहती हैं तो भू-पृष्ठ पर तनाव पैदा हो जाता है और उसमें दरारें पड़ जाती हैं। परन्तु जब महाद्वीपों के अग्र भागों में दो विपरीत दिशाओं से आकर संवहन धाराएं मिलती हैं तो वे नीचे की ओर जाती हैं और महाद्वीपों के अग्र भाग को दबाती हैं। इस प्रकार महाद्वीप के अग्रभाग में सम्पीड़न उत्पन्न हो जाता है। इससे भू-अभिनतियां बनती हैं इन भू-अभिनतियों से वलित पर्वतों का निर्माण होता है।
भूकंप व ज्वालामुखियों का वितरण 
प्रशांत महासागर के किनारों को सक्रिय ज्वालामुखी के क्षेत्र होने के कारण ‘रिंग ऑफ फायर’  कहा जाता है।
महासागरीय अधःस्तल की बनावट का वर्णन कीजिए।
महासागरीय अधःस्तल को तीन भागो में विभाजित किया जा सकता है 
1. महाद्वीपीय सीमा - इसके अन्तर्गत महाद्वीपीय किनारों और गहरे समुद्री बेसिन के मध्य स्थित उच्चावचन स्वरूपों को सम्मिलित किया जाता है। इसमें महाद्वीपीय मग्नतट, महाद्वीपीय मग्लढाल, महाद्वीपीय उभार और गहरी महासागरीय खाइयों आदि को सम्मिलित किया गया है। 
2. वितलीय मैदान - ये विस्तृत मैदान महाद्वीपीय तटों व मध्य महासागरीय कटकों के बीच पाए जाते हैं। वितलीय मैदान, वह क्षेत्र हैं, जहाँ महाद्वीपों से बहाकर लाए गए अवसाद इनके तटों से दूर निक्षेपित होते हैं। 
3. मध्य महासागरीय कटक - मध्य महासागरीय कटक आपस में जुड़े हुए पर्वतों की एक शृंखला बनाते है। महासागरीय जल में डूबी हुई, यह पृथ्वी के धरातल  पर पाई जाने वाली संभवतः सबसे लंबी पर्वत शृंखला है।
सागरीय अधस्तल का विस्तार
मध्य महासागरीय कटक व ज्वालामुखी उद्गार में घनिष्ट सम्बन्ध पाया जाता है ज्वालामुखी उद्गार से इस क्षेत्र में बड़ी मात्रा में लावा बाहर निकालते हैं। महासागरीय कटक के मध्य भाग के दोनों तरफ समान दूरी पर पाई जाने वाली चट्टानों के निर्माण का समय, संरचना, संघटन और चुंबकीय गुणों में समानता पाई जाती है। महासागरीय कटकों के समीप की चट्टाने नवीनतम हैं। कटकों के शीर्ष से दूर चट्टानों की आयु भी अधिक है। महासागरीय पर्पटी की चट्टाने महाद्वीपीय पर्पटी की चट्टानों की अपेक्षा अधिक नई हैं। गहरी खाइयों में भूकंप के उद्गम अधिक गहराई पर हैं। जबकि मध्य-महासागरीय कटकों के क्षेत्र में भूकंप उद्गम केंद्र कम गहराई पर विद्यमान हैं। इन तथ्यों और मध्य महासागरीय कटकों के दोनों तरफ की चट्टानों के चुंबकीय गुणों के विश्लेषण के आधार पर हेस ने सन् 1961 में एक परिकल्पना प्रस्तुत की, जिसे ‘सागरीय अधस्तल विस्तार’ के नाम से जाना जाता है। हेस के अनुसार महासागरीय कटकों के शीर्ष पर लगातार ज्वालामुखी उद्गार होते है जिससे महासागरीय पर्पटी में विभेदन होता है और नया लावा इस दरार को भरकर महासागरीय पर्पटी को दोनों तरफ धकेल रहा है। इस प्रकार महासागरीय अधस्तल का विस्तार हो रहा है । 
प्लेट विवर्तनिकी 
एक विवर्तनिक प्लेट जिसे लिथोस्पेफरिक प्लेट भी कहा जाता है ठोस चट्टान का विशाल व अनियमित आकार का खंड है, जो महाद्वीपीय व महासागरीय स्थलमंडलों से मिलकर बना है। ये प्लेटें दुर्बलतामंडल पर एक दृढ़ इकाई के रूप में क्षैतिश अवस्था में चलायमान हैं। 
एक प्लेट को महाद्वीपीय या महासागरीय प्लेट भी कहा जा सकता है जो इस बात पर निर्भर है कि उस प्लेट का अधिकतर भाग महासागर अथवा महाद्वीप से संबद्ध  है। उदाहरणार्थ प्रशांत प्लेट मुख्यतः महासागरीय प्लेट है, जबकि यूरेशियन प्लेट को महाद्वीपीय प्लेट कहा जाता है। 
प्लेट विवर्तनिकी के सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी का स्थलमंडल सात मुख्य प्लेटों व कुछ छोटी प्लेटों में विभक्त है। नवीन वलित पर्वत श्रेणियाँ, खाइयाँ और भ्रंश इन मुख्य प्लेटों को सीमांकित करते हैं। 
1, अफ्रीकी प्लेट – यह एक मिश्रित महाद्वीपीय व महासागरीय प्लेट है। इसमें पूर्वी अटलांटिक तलशामिल है 
2. इंडो-आस्ट्रेलियन-न्यूजीलैंड प्लेट– इस प्लेट के अन्तर्गत भारतीय उपमहाद्वीप व आस्ट्रेलिया की स्थलीय पर्पटी तथा हिन्द महासागर एवं प्रशान्त महासागर की दक्षिणी-पश्चिमी महासागरीय पर्पटी सम्मिलित है।
3. यूरेशियन प्लेट– यह एकमात्र ऐसी प्लेट है जो अधिकांशतः महाद्वीपीय पर्पटी से निर्मित है। इसमें पूर्वी अटलांटिक महासागरीय तल सम्मिलित है
4. उत्तरी अमेरिकी प्लेट - इसमें पश्चिमी अटलांटिकतल सम्मिलित है तथा दक्षिणी अमेरिकन प्लेटव कैरेबियन द्वीप इसकी सीमा का निर्धारण करते हैं
5. दक्षिण अमेरिकी प्लेट – इसमे पश्चिमी अटलांटिक तल सम्मलित है उत्तरी अमेरिकी प्लेट व कैरेबियनद्वीप इसकी सीमा का निर्धारण करते हैं
6. प्रशान्त प्लेट – यह एकमात्र ऐसी प्लेट है जो पूर्णरूप से महासागरीय पर्पटी से निर्मित है।
7. अण्टार्कटिक प्लेट – अण्टार्कटिक प्लेट का अधिकांश भाग हिमाच्छादित है। यह प्लेट अण्टार्कटिका महाद्वीप के चारों ओर मध्य महासागरीय कटकों तक विस्तृत है।
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कुछ महत्वपूर्ण छोटी प्लेटें निम्नलिखित हैं:
(i) कोकोस प्लेट - यह प्लेट मध्यवर्ती अमेरिका और प्रशांत महासागरीय प्लेट के बीच स्थित है।
(ii) नजका प्लेट - यह दक्षिण अमेरिका व प्रशांत महासागरीय प्लेट के बीच स्थित है।
(iii) अरेबियन प्लेट – इसमें अधिकतर अरब प्रायद्वीप का भू-भाग सम्मिलित है।
(iv) फिलिपीन प्लेट -यह एशिया महाद्वीप और प्रशांत महासागरीय प्लेट के बीच स्थित है।
(v) कैरोलिन प्लेट - यह न्यूगिनी के उत्तर में फिलिपियन व इंडियन प्लेटके बीच स्थित है।
रूपांतर भ्रंश
रूपांतर भ्रंश दो प्लेट को अलग करने वाले तल हैं जो सामान्यतः मध्य-महासागरीय कटकों से लम्बवत स्थिति में पाए जाते हैं। 
प्लेट संचरण की सीमाएं
प्लेट संचरण के फलस्वरूप तीन प्रकार की प्लेट सीमाएँ बनती हैं।
अपसारी सीमा /रचनात्मक प्लेट किनारे 
जब दो प्लेट एक दूसरे से विपरीत दिशा में अलग हटती हैं और नई पर्पटी का निर्माण होता है। उन्हें अपसारी प्लेट कहते हैं। वह स्थान जहाँ से प्लेट एक दूसरे से दूर हटती हैं, इन्हें प्रसारी स्थान भी कहा जाता है। अपसारी सीमा का सबसे अच्छा उदाहरण मध्य-अटलांटिक कटक है। जहाँ उत्तरी अमेरिकन तथा दक्षिणी अमेरिकन प्लेटें, यूरेशियन तथा अफ्रीकी प्लेट से अलग हो रही हैं।
अभिसरण सीमा/विनाशात्मक प्लेट किनारे
जब दो प्लेटें आमने-सामने सरकती हैं तो एक प्लेट दूसरी प्लेट के नीचे धंसती है तथा वहाँ भूपर्पटी नष्ट होती है उसे अभिसरण सीमा या विनाशात्मक प्लेट किनारा भी कहते हैं। । वह स्थान जहाँ प्लेट धँसती हैं, इसे प्रविष्ठन क्षेत्र भी कहते हैं। 
अभिसरण तीन प्रकार से हो सकता है- 
1. महासागरीय व महाद्वीपीय प्लेट के बीच 
2. दो महासागरीयप्लेटों के बीच 
3. दो महाद्वीपीय प्लेटों के बीच।
रूपांतर सीमा 
जहाँ दो प्लेट दूसरे के साथ-साथक्षैतिज दिशा में सरकती हैं। वहां न तो नई पर्पटी का निर्माण होता है और न ही पर्पटीका विनाश होता है, उन्हें रूपांतर सीमा कहते हैं।
प्लेट प्रवाह दरें 
प्लेट प्रवाह की दरें बहुत भिन्न हैं। आर्कटिक कटक की प्रवाह दर सबसे कम है 2.5 सेंटीमीटर प्रति वर्ष से भी कम। ईस्टर द्वीप के निकट पूर्वी प्रशांत महासागरीय उभार, जो चिली से 3,400 कि.मी. पश्चिम की ओर दक्षिण प्रशांत महासागर में है, इसकी प्रवाह दर सर्वाधिक है जो 5 से.मी. प्रति वर्ष से भी अधिक है
प्लेट को संचलित करने वाले बल 
ऐसा माना जाता है कि दृढ़ प्लेट के नीचे चलायमान चट्टानें वृत्ताकार रूप में चल रही हैं। उष्ण पदार्थ धरातल पर पहुँचता है, फैलता है और धीरे-धीरे  ठंडा होता है फिर गहराई में जाकर नष्ट हो जाता है। यही चक्र बारंबार दोहराया जाता है और वैज्ञानिक इसे संवहन प्रवाह कहते हैं। 
पृथ्वी के भीतर ताप उत्पत्ति के दो माध्यम हैं रेडियोर्ध्मी तत्वों का क्षय और अवशिष्ट ताप। 
भारतीय प्लेट का संचलन 
भारतीय प्लेट में प्रायद्वीप भारत और आस्ट्रेलिया महाद्वीपीयभाग सम्मिलित हैं। हिमालय पर्वत श्रेणियों के साथ-साथ पाया जाने वाला प्रविष्ठन क्षेत्र इसकी उत्तरी सीमा का निर्धारण करता है तथा महाद्वीपीय-महाद्वीपीय अभिसरण के रूप में है।


इसकी पूर्वी सीमा एक विस्तारित तल है, जो आस्ट्रेलिया के  पूर्व में दक्षिणी पश्चिमी प्रशांत महासागर में महासागरीय कटक वेफ रूप में है। इसकी पश्चिमी सीमा पाकिस्तान की किरथर श्रेणियों का अनुसरण करती है। भारत एक वृहत् द्वीप था, जो आस्ट्रेलियाई तट से दूर एक विशाल महासागर में स्थित था। लगभग 22.5 करोड़ वर्ष पहलेतक टेथीस सागर इसे एशिया महाद्वीप से अलग करता था।  लगभग 20 करोड़ वर्ष पहले जब पैन्जिया का विभाजन हुआ तब भारतीय प्लेट उत्तर की ओर सरकने लगी। लगभग 4 या 5 करोड़ वर्ष पहले भारतीय प्रायद्वीप एशिया से जा टकराया। फलस्वरूप टेथिस का मलवा वलित होकर हिमालय पर्वत के रूप में परिवर्तित हो गया। लगभग 14 करोड़ वर्ष पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप सुदूर दक्षिण में 50® दक्षिणी अक्षांश पर स्थित था। भारतीय प्लेट और एशियाई प्लेट के मध्य टेथिस सागर स्थित था और जब भारतीय प्लेट एशियाई प्लेट की ओर सरक रही थी उस समय लावा प्रवाह से दक्‍कन ट्रैप का निर्माण हुआ। लावा जमाव की प्रक्रिया का प्रारम्भ 6 करोड़ वर्ष पहले प्रारम्भ हुआ और काफी अधिक लम्बे समय तक चलता रहा। भारतीय उपमहाद्वीप उस समय की भूमध्य रेखा के समीप स्थित था और आज भी इसकी स्थिति भूमध्य रेखा के समीप ही उत्तरी गोलार्द्ध में है। हिमालय निर्माण की प्रक्रिया आज से लगभग 7 करोड़ वर्ष पहले शुरू हुई व आज भी जरी है। और आज भी हिमालय का उत्थान हो रहा है।
  1. निम्न में से किसने सर्वप्रथम यूरोप, अफ्रीका व अमेरिका के साथ स्थित होने की सम्भावना व्यक्त की?
    (क) अल्फ्रेड वेगनर  (ख) अब्राहमें आरटेलियस
    (ग) एनटोनियो पेलेग्रिनी (घ) एडमण्ड हैस   (ख) 
  2. पोलर फ्लीइंग बल (Polar fleeing Force) निम्नलिखित में से किससे सम्बन्धित है?
    (क) पृथ्वी का परिक्रमण (ख) पृथ्वी को घूर्णन
    (ग) गुरुत्वाकर्षण  (घ) ज्वारीय बल   (ख)
  3. इनमें से कौन-सी लघु (Minor) प्लेट नहीं है?
    (क) नजका          (ख) फ़िलिपीन
    (ग) अरब          (घ) अण्टार्कटिक   (घ)
  4. सागरीय अधःस्तल विस्तार सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए हैस ने निम्न में से किस अवधारणा पर विचार नहीं किया?
    (क) मध्य-महासागरीय कटकों के साथ ज्वालामुखी क्रियाएँ
    (ख) महासागरीय नितल की चट्टानों में सामान्य व उत्क्रमण चुम्बकत्व क्षेत्र की पट्टियों का होना
    (ग) विभिन्न महाद्वीपों में जीवाश्मों का वितरण
    (घ) महासागरीय तल की चट्टानों की आयु ।          (ग)   
  5. हिमालय पर्वतों के साथ भारतीय प्लेट की सीमा किस तरह की प्लेट सीमा है?
    (क) महासागरीय-महाद्वीपीय अभिसरण   
    (ख) अपसारी सीमा
    (ग) रूपान्तरण सीमा       
    (घ) महाद्वीपीय-महाद्वीपीय अभिसरण                 (घ) 
  6. महाद्वीपों के प्रवाह के लिए वेगनर ने किन बलों का उल्लेख किया?
    वेगनर ने महाद्वीपीय विस्थापन के लिए निम्न बलों का उल्लेख किया है
    1.पोलर या ध्रुवीय फ्लीइंग बल
    2.ज्वारीय बल
  7.  मैंटल में संवहन धाराओं के आरम्भ होने और बने रहने के क्या कारण हैं?
    संवहन धाराएँ रेडियोएक्टिव तत्त्वों से ताप भिन्नता के कारण मैंटल में उत्पन्न होती हैं। ये धाराएँ रेडियोएक्टिव तत्त्वों की उपलब्धता के कारण ही मैंटल में बनी रहती हैं तथा इन्हीं तत्त्वों से संवहनीय धाराएँ आरम्भ होकर चक्रीय रूप में प्रवाहित होती रहती हैं।
  8. प्लेट की रूपान्तर सीमा, अभिसरण सीमा और अपसारी सीमा में मुख्य अन्तर क्या है?
    प्लेट की रूपान्तर सीमा में पर्पटी का न तो निर्माण होता है और न ही विनाश। जबकि अभिसरण सीमा में पर्पटी का विनाश होता है तथा अपसारी सीमा में पर्पटी का निर्माण होता है। 
  9. दक्कन ट्रैप के निर्माण के दौरान भारतीय स्थलखण्ड की स्थिति क्या थी?
    आज से लगभग 14 करोड़ वर्ष पूर्व भारतीय स्थलखण्ड सुदूर दक्षिण में 50° दक्षिणी अक्षांश पर स्थित था। भारतीय उपमहाद्वीप व यूरेशियन प्लेट को टैथीस सागर अलग करता था इण्डियन प्लेट के एशियाई प्लेट की तरफ प्रवाह के दौरान एक प्रमुख घटना लावा प्रवाह के कारण दक्कन टैप का निर्माण हुआ। अत: भारतीय स्थलखण्ड दक्कन टैप निर्माण के समय भूमध्य रेखा के निकट स्थित था।
  10. महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त के पक्ष में दिए गए प्रमाणों का वर्णन करें।
    महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त के पक्ष में निम्नलिखित प्रमाण प्रमुख रूप से दिए जाते हैं
    1. महाद्वीपों में साम्य- दक्षिण अमेरिका व अफ्रीका के आमने-सामने की तटरेखाएँ अद्भुत व त्रुटिरहित साम्य दिखाती हैं। दक्षिणी अमेरिका में ब्राजील का अफ्रीका की गिनी की खाड़ी में भली-भाँति सटाया जा सकता है। इसी प्रकार अटलांटिक महासागर के पूर्वी तथा पश्चिमी तटों की रूप-रेखा को देखने से यह प्रतीत होता है कि ये सभी स्थल पहले इकद्ठे थे। बाद  में उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के परिचम की ओर खिसकने से अटलाटिक महासागर का निर्माण हुआ। 
    2. महासागरों के पार चट्टानों की आयु में समानता -दक्षिण अमेरिका व अफ्रीका के अन्धमहासगारीय तटो में समानता मिलाती है इन दोनों किनारो पर  पाए जाने वाले समुद्री निक्षेप जुरेसिक काल के हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि कभी ये महाद्वीप मिले हुए थे और इनके बीच अन्ध महासागर की उपस्थिति वहाँ नहीं थी। 
    3. टिलाइट-हिमानी निक्षेपण से निर्मित अवसादी चट्टानें टिलाइट कहलाती हैं। ये चट्टानें गोंडवाना लैंड के छः भागों भारत, अफ्रीका, फॉकलैंड द्वीप, मैडागास्कर, अंटार्कटिक और आस्ट्रेलिया में मिलती हैं। इन स्थाल्खंडो पर हिमावरण का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है इससे यह सिद्ध हो है कभी ये सभी भूखंड एक ही स्थलखंड के भाग थे 
    4. प्लेसर निक्षेप - अफ्रीका के घाना तट पर सोने के बड़े निक्षेप मिलते है सोनायुक्त शिराएँ दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप के ब्राजील में पाई जाती हैं। अतः यह स्पष्ट है कि घाना में मिलने वाले सोने के निक्षेप ब्राजील पठार से उस समय निकले होंगे, जब ये दोनों महाद्वीप एक दूसरे से जुड़े थे।
    5. जीवाश्मों का वितरण  - ‘लैमूर’ भारत, मैडागास्कर व अफ्रीका में मिलते हैं, कुछ वैज्ञानिकों ने इन तीनों स्थलखंडों को जोड़कर एक सतत् स्थलखंड ‘लेमूरिया’ की उपस्थिति को स्वीकारा।मेसोसारस नाम के छोटे रेंगने वाले जीव केवल उथले खारे पानी में ही रह सकते थे- इनकी अस्थियाँ केवल दक्षिण अफ्रीका के दक्षिणी केप प्रांत और ब्राजील में इरावर शैल समूह में ही मिलते हैं। ये दोनों स्थान आज एक दूसरे से 4,800 कि0मी0 की दूरी पर हैं और इनके बीच में एक महासागर विद्यमान है। 
  11. महाद्वीपीय विस्थापन एवं प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त में प्रमुख अन्तर निम्न हैं
    (1) महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त का प्रतिपादन अल्फ्रेड वेगनर ने किया जबकि प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त का प्रतिपादन मैकेन्जी, पारकर एवं मोरगन  ने किया ।
    (2) महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त के अनुसार आरम्भिक काल में सभी महाद्वीप एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। इस जुड़े स्थल रूप को वेगनर ने ‘पैन्जिया’ कहा है। जबकि प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त के अनुसार महाद्वीप एवं महासागर अनियमित एवं भिन्न आकार वाले प्लेटों पर स्थित हैं और गतिशील हैं।
    (3) वेगनर के अनुसार महाद्वीपों का प्रवाह ध्रुवीय फ्लाइंग बल एवं ज्वारीय बल के कारण हुआ  जबकि  प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त के अनुसार प्लेट दुर्बलता मण्डल पर एक दृढ़ इकाई के रूप में क्षैतिज अवस्था में चलायमान है। इनकी गति का प्रमुख कारण मैण्टिल में उत्पन्न होने वाली संवहनीय धाराएँ हैं।
    (4) महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त के अनुसार स्थलखण्ड सियाल के बने हैं जो अधिक घनत्व वाले सीमा पर तैर रहे हैं। अर्थात् केवल स्थलखण्ड गतिशील हैं। जबकि प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त  के अनुसार एक विवर्तनिक प्लेट जो महाद्वीपीय एवं महासागरीय स्थलखण्डों से मिलकर बनी है, एक दृढ़ इकाई के रूप में क्षैतिज अवस्था में गतिशील है।

  1. महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त के प्रतिपादक कौन हैं ?
    वेगनर
  2. टिलाइट किसे कहते है 
    हिमानी निक्षेपण से निर्मित अवसादी चट्टानें टिलाइट कहलाती हैं। 
  3. कोकोस प्लेट कहाँ स्थित है?
    कोकोस प्लेट मध्यवर्ती अमेरिका एवं प्रशान्त महासागरीय प्लेट के मध्य स्थित है।
  4. प्रथम श्रेणी के उच्चावच क्या हैं?
    पृथ्वी तल पर मिलने वाले महाद्वीप व महासागरों को प्रथम श्रेणी के उच्चावच माना जाता है क्योंकि इनकी रचना सबसे पहले हुई।
  5. रूपांतर भ्रंश से क्या अभिप्राय है 
    रूपांतर भ्रंश दो प्लेट को अलग करने वाले तल हैं जो सामान्यतः मध्य-महासागरीय कटकों से लंबवत स्थिति में पाए जाते हैं। 
  6. वेगनर ने पेंजिया किसे कहा ?
    वेगनर के अनुसार कार्बोनिफेरस युग में समस्त महाद्वीप एक स्थलखण्ड के रूप में स्थित थे। इस संयुक्त स्थलखण्ड को ही पेंजिया कहा गया है।
  7. महाद्वीप व महासागरों की उत्पत्ति के सर्वमान्य सिद्धान्त कौन-से हैं?
    महाद्वीप व महासागरों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में महाद्वीपीय विस्थापन एवं विवर्तनिकी नामक सिद्धान्त सर्वमान्य हैं।
  8. स्थलमंडल से क्या तात्पर्य है?
    स्थलमंडल में पर्पटी एवं ऊपरी मैंटल को सम्मिलित किया जाता है, जिसकी मोटाई महासागरों में 5 से 100 कि0मी0 और महाद्वीपीय भागों में लगभग 200 कि0मी0 है। 
  9. प्रविष्ठन क्षेत्र क्या होता है?
    अभिसरण सीमा पर जहाँ भू-प्लेट धंसती है, उस क्षेत्र को प्रविष्ठन क्षेत्र कहते हैं। हिमालय पर्वतीय क्षेत्र इसका प्रमुख उदाहरण है
  10. रूपान्तरण सीमा क्या है?
    जहाँ दो प्लेट दूसरे के साथ-साथ क्षैतिज दिशा में सरकती हैं। वहां न तो नई पर्पटी का निर्माण होता है और न ही पर्पटी का विनाश होता है, उन्हें रूपांतर सीमा कहते हैं। 
  11. विवर्तनिक प्लेट क्या है 
    एक विवर्तनिक प्लेट जिसे लिथोस्पेफरिक प्लेट भी कहा जाता है, ठोस चट्टान का विशाल व अनियमित आकार का खंड है, जो महाद्वीपीय व महासागरीय स्थलमंडलों से मिलकर बना है। ये प्लेटें दुर्बलतामंडल पर एक दृढ़ इकाई के रूप में क्षैतिज अवस्था में चलायमान हैं। 
  12. टेथीस भूसन्नति के दोनों ओर के भूखण्डों के नाम लिखिए।
    टेथोस भूसन्नति के दोनों ओर के भागों के लिए क्रमश: उत्तर में स्थित भाग के लिए अंगारालैण्ड (लारेशिया) व दक्षिणी भाग के लिए गौंडवाना लैण्ड शब्द का प्रयोग किया गया था।
  13. अपसारी सीमा क्या है? इसका एक उदाहरण दीजिए।
    जब दो प्लेटें एक-दूसरे से विपरीत दिशा में अलग हटती हैं और नई पर्पटी का निर्माण होता है तो उन्हें अपसारी प्लेट कहते हैं। अपसारी सीमा का सबसे अच्छा उदाहरण मध्य अटलांटिक कटक है।
  14. पेंथालासा से आपका क्या आशय है?
    कार्बोनिफेरस युग में समस्त महाद्वीप एक स्थलखण्ड के रूप में स्थित थे, इस संयुक्त स्थलखण्ड (पेंजिया) के चारों ओर विशाल महासागर था जिसे पेंथालासा कहा जाता है।
  15.  वेगनर के महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
    महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत  का प्रतिपादन जर्मन मौसमविद अल्प्रेफड वेगनर ने सन् 1912 किया। यह सिद्धांत महाद्वीप एवं
    महासागरों के वितरण से संबंधित है वेगनर के अनुसार आज के सभी महाद्वीप कार्बोनिफेरस युग में आपस में जुड़े हुए थे इस बड़े महाद्वीप को पैंजिया का नाम दिया। पैंजिया का अर्थ है- संपूर्ण पृथ्वी।  यह पैंजिया एक बड़े महासागर से घिरा हुआ था। इस  विशाल महासागर को पैंथालासा कहागया  जिसका अर्थ है- जल ही जल। वेगनर के अनुसार लगभग 20 करोड़ वर्ष पहले इस बड़े महाद्वीप पैंजिया का विभाजन आरंभ हुआ। यह पैंजिया पहले दो बड़े भागो में विभाजित हुआ उत्तरी भाग लारेशिया(अंगारालैण्ड) और दक्षिणी भाग गोडवानालैंड कहलाया इन दोनों स्थलीय भागो के बीच एक उथला व संकीर्ण महासागर बना जिसे टेथिस सागर कहते है लारेशिया(अंगारालैण्ड)  के विभाजन से उत्तरी अमेरिका तथा यूरोप व एशिया महाद्वीप बने गोंडवानालैण्ड के विभाजन से दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका, प्रायद्वीपीय भारत, मेडागास्कर द्वीप तथा आस्ट्रेलिया बने 
  16. प्लेट कितने प्रकार की होती हैं? स्पष्ट कीजिए।
    संरचना के आधार पर प्लेटों को निम्न भागों में बाँटा गया है
    1. महाद्वीपीय प्लेट – जिस प्लेट का सम्पूर्ण या अधिकांश भाग स्थलीय हो, वह महाद्वीपीय प्लेट कहलाती है। यूरेशियन प्लेट
    2. महासागरीय प्लेट – जिस प्लेट का सम्पूर्ण या अधिकांश भाग महासागरीय तली के अन्तर्गत होता है वह महासागरीय प्लेट कहलाती है। प्रशान्त प्लेट
    3. महसागरीय – महाद्वीपीय प्लेट-जिस प्लेट पर महाद्वीप व महासागरीय तली दोनों का विस्तार होता है।
  17. अभिसरणं सीमा किसे कहते हैं? यह कितने प्रकार से हो सकता है?
    जब दो प्लेटें आमने-सामने सरकती हैं तो एक प्लेट दूसरी प्लेट के नीचे धंसती है तथा वहाँ भूपर्पटी नष्ट होती है उसे अभिसरण सीमा या विनाशात्मक प्लेट किनारा भी कहते हैं। अभिसरण तीन प्रकार से हो सकता है-
    1. महासागरीय व महाद्वीपीय प्लेट के मध्य,
    2. दो महासागरीय प्लेटों के मध्य,
    3. दो महाद्वीपीय प्लेटों के मध्य
  18. संवहन धारा सिद्धान्त क्या है?
    संवहन-धरा सिद्धांत का प्रतिपादन आर्थर होम्स ने किया संवहन-धरा सिद्धांत के अनुसार मेंटल में उपस्थित रेडियो एक्टिव (रेडियोधमी ) तत्वों में ताप की भिन्‍नता के कारण संवहन धाराएँ उत्पन्न होती है ये धाराएँ चक्रीय प्रवाह के रूप में संचालित होती रहती हैं। इस प्रकार पूरे मैंटल भाग में इस प्रकार की धराओं का एक तंत्र विद्यमान है। जब धाराएं एक स्थान से दो विपरीत दिशाओं की ओर बहती हैं तो भू-पृष्ठ पर तनाव पैदा हो जाता है और उसमें दरारें पड़ जाती हैं। परन्तु जब महाद्वीपों के अग्र भागों में दो विपरीत दिशाओं से आकर संवहन धाराएं मिलती हैं तो वे नीचे की ओर जाती हैं और महाद्वीपों के अग्र भाग को दबाती हैं। इस प्रकार महाद्वीप के अग्रभाग में सम्पीड़न उत्पन्न हो जाता है। इससे भू-अभिनतियां बनती हैं इन भू-अभिनतियों से वलित पर्वतों का निर्माण होता है।
  19. महासागरीय अधःस्तल की बनावट का वर्णन कीजिए।
    महासागरीय अधःस्तल को तीन भागो में विभाजित किया जा सकता है 
    1.महाद्वीपीय सीमा - इसके अन्तर्गत महाद्वीपीय किनारों और गहरे समुद्री बेसिन के मध्य स्थित उच्चावचन स्वरूपों को सम्मिलित किया जाता है। इसमें महाद्वीपीय मग्नतट, महाद्वीपीय मग्लढाल, महाद्वीपीय उभार और गहरी महासागरीय खाइयों आदि को सम्मिलित किया गया है। 
    2. वितलीय मैदान -ये विस्तृत मैदान महाद्वीपीय तटों व मध्य महासागरीय कटकों के बीच पाए जाते हैं। वितलीय मैदान, वह क्षेत्र हैं, जहाँ महाद्वीपों से बहाकर लाए गए अवसाद इनके तटों से दूर निक्षेपित होते हैं। 
    3. मध्य महासागरीय कटक - मध्य महासागरीय कटक आपस में जुड़े हुए पर्वतों की एक शृंखला बनाते है। महासागरीय जल में डूबी हुई, यह पृथ्वी के धरातल  पर पाई जाने वाली संभवतः सबसे लंबी पर्वत शृंखला है।
  20. पृथ्वी का स्थलमंडल कितनी भूमण्डलीय प्लेटों से बना हुआ है मुख्य भूमण्डलीय प्लेटों का वर्णन कीजिए
    प्लेट विवर्तनिकी के सिद्धांतके अनुसार पृथ्वी का स्थलमंडल सात मुख्य प्लेटों व कुछ छोटी प्लेटों में विभक्त है। नवीन वलित पर्वत श्रेणियाँ, खाइयाँ और भ्रंश इन मुख्य प्लेटों को सीमांकित करते हैं। 
    1. अफ्रीकी प्लेट – यह एक मिश्रित महाद्वीपीय व महासागरीय प्लेट है। इसमें पूर्वी अटलांटिक तल शामिल है 
    2.इंडो-आस्ट्रेलियन-न्यूजीलैंड प्लेट – इस प्लेट के अन्तर्गत भारतीय उपमहाद्वीप व आस्ट्रेलिया की स्थलीय पर्पटी तथा हिन्द महासागर एवं प्रशान्त महासागर की दक्षिणी-पश्चिमी महासागरीय पर्पटी सम्मिलित है।
    3.यूरेशियन प्लेट– यह एकमात्र ऐसी प्लेट है जो अधिकांशतः महाद्वीपीय पर्पटी से निर्मित है। इसमें पूर्वी अटलांटिक महासागरीय तल सम्मिलित है
    4.उत्तर अमेरिकी प्लेट - इसमें पश्चिमी अटलांटिक तल सम्मिलित है तथा दक्षिणी अमेरिकन प्लेट व कैरेबियन द्वीप इसकी सीमा का निर्धरण करते हैं
    5.दक्षिण अमेरिकी प्लेट – इसमे पश्चिमी अटलांटिक तल सम्मलित है उत्तरी अमेरिकी प्लेट व कैरेबियन द्वीप इसकी सीमा का निर्धारण करते हैं
    6.प्रशान्त प्लेट– यह एकमात्र ऐसी प्लेट है जो पूर्णरूप से महासागरीय पर्पटी से निर्मित है।
    7.अण्टार्कटिक प्लेट – अण्टार्कटिक प्लेट का अधिकांश भाग हिमाच्छादित है। यह प्लेट अण्टार्कटिका महाद्वीप के चारों ओर मध्य महासागरीय कटकों तक विस्तृत है।




 






3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना



पृथ्वी बहुत बड़ा ग्रह है जिसकी त्रिज्या 6370 कि०मी० है। यह अन्दर से इतनी गर्म तथा घनी है कि इसके केन्द्र तक पहुँचाना असंभव है अतः पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में हमारा ज्ञान अनुमानों पर ही आधारित है। इससे संबंधित सूचना का कुछ भाग प्रत्यक्ष स्रोतों तथा अधिकांश भाग अप्रत्यक्ष स्रोतों से प्राप्त होता है।
प्रत्यक्ष स्रोत
1.धरातलीय चट्टानें :
खनन से प्राप्त धरातलीय चट्टानें पृथ्वी की आंतरिक संरचना के संबंध में महतवपूर्ण जानकारी देती हैं। खनन से प्राप्त इन चट्टानों के विश्लेषण से हमें पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी मिलाती है दक्षिणी अफ्रीका की सोने की खाने 4 कि.मी. गहरी है इससे अधिक गहराई में जा पाना असंभव है 
2. प्रवेधन से प्राप्त चट्टाने :
खानन से प्राप्त चट्टानों के अलावा पृथ्वी की आंतरिक संरचना जानने हेतु वैज्ञानिक दो मुख्य अन्य परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं। 
(i) गहरे समुद्र में प्रवेधन परियोजना (ii) समन्वित महासागरीय प्रवेधन परियोजना 
आज तक सबसे गहरा प्रवेधन आर्कटिक महासागर में कोला  क्षेत्र में 12 कि०मी० की गहराई तक किया गया है। गहरी खुदाई से विभिन्‍न गहराइयों से प्राप्त पदार्थों के विश्लेषण से हमें पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में महतवपूर्ण जानकारी मिलाती है।
3. ज्वालामुखी उद्गार :
ज्वालामुखी उद्गार पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी का एक अन्य प्रत्यक्ष स्रोत है ज्वालामुखी उद्गार के समय भूगर्भ से निकलने वाले पदार्थ पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं 
अप्रत्यक्ष स्रोत
1. ताप, दाब व घनत्व 
खनन क्रिया से हमें यह पता चलता है कि पृथ्वी के धरातल में गहराई बढ़ने के साथ-साथ तापमान, दबाव एवं घनत्व में वृद्धि होती है  सामान्यता 32 मीटर की गहराई पर एक डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ जाता है। तापमान की इस वृद्धि दर के अनुसार भूगर्भ के सभी पदार्थ पिघली हुई अवस्था में होने चाहिए परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है गहराई के साथ-साथ तापमान में वृद्धि की दर कम होती जाती है। एक  गणना के अनुसार पृथवी के केंद्र का तापमान 2,000 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए । इतने अधिक तापमान पर पृथ्वी के आन्तरिक भागों में कोई भी पदार्थ ठोस अवस्था में नहीं रहना चाहिए बल्कि वहाँ पर उपस्थित चट्टानों को तरल या गैसीय अवस्था में होना चाहिए। परन्तु पृथ्वी के धरातल में गहराई बढ़ने के साथ-साथ दाब भी बढ़ता है  जिससे वस्तुओं का 'गलनांक ऊँचा हो जाता है और पृथ्वी के केन्द्र के निकट अत्यधिक तापमान के होते हुए भी धात्विक क्रोड की तरल चट्टानें अत्यधिक दबाव के कारण ठोस पदार्थ के गुण रखती हैं। 
2. उल्कापिंड
अंतरिक्ष से पृथ्वी तक पहुँचने वाली उल्काएँ पृथ्वी की आंतरिक संरचना के संबंध में सूचना का एक अन्य अप्रत्यक्ष स्रोत है। इसका कारण यह है कि उल्काओं की रचना भी प्रृथ्वी की रचना के समान ही हुई थी और उनसे प्राप्त पदार्थ एवं उनकी संरचना पृथ्वी से मिलती-जुलती है
3. गुरुत्वाकर्षण  बल 
पृथ्वी के धरातल पर भी विभिन्न अक्षांशों पर गुरुत्वाकर्षण बल एक समान नहीं होता है पृथ्वी के केन्द्र से दूरी के कारण गुरुत्वाकर्षण बल ध्रुवों पर अधिक और भूमध्यरेखा पर कम होता है। गुरुत्वाकर्षण बल का मान पदार्थ के द्रव्यमान के अनुसार भी बदलता है। अतः पृथ्वी के भीतर पदार्थों का असमान वितरण है। गुरुत्वाकर्षण बल में भिन्नता से हमें भूपर्पटी में पदार्थ के द्रव्यमान के वितरण की जानकारी देती है। 
4. भूकम्पीय तरंगे
भूकम्पीय तरंगे भी पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी  देती है। साधरण भाषा में भूकम्प का अर्थ है पृथ्वी का कम्पन। अतः भूकम्प भूपृष्ट पर होने वाला आकस्मिक कम्पन है भूकम्पीय तीव्रता की मापनी ‘रिक्टर स्केल के नाम से जानी जाती है। इसकी गहनता 1 से 10 तक होती है।
उद्गम केन्द्र/ अवकेन्द्र- भूगर्भ में जिस स्थान पर भूकम्प की उत्पत्ति होती है अर्थात जहां से ऊर्जा निकलती है उसे भूकम्प का उद्गम केंद्र या अवकेंद्र कहते हैं उद्गम केंद्र से ऊर्जा तंरगें अलग-अलग दिशाओं में चलती हुई पृथ्वी की सतह तक पहुँचती हैं। 
अधिकेन्द्र- भूकम्प के उद्गम केंद्र के ठीक ऊपर (समकोण पर)धरातल पर स्थित वह बिंदु जहां भूकंपीय तरंगे सबसे पहले महसूस की जाती है अधिगम केंद्र कहलाता है
सभी प्राकृतिक भूकम्प स्थलमंडल (पृथ्वी के धरातल से 200 कि0मी0 तक की गहराई वाला भाग) में ही आते है भूकम्प के समय मुख्यतः दो प्रकार की भूकम्पीय तरंगे उत्पन्न होती है जिन्हें भूकम्प मापी यंत्र (सिस्मोग्राफ) द्वारा अभिलेखित किया जाता है 
(i) भूगर्भिक तरंगें 
भूगर्भिक तरंगें उद्गम केन्द्र से ऊर्जा के मुक्त होने के दौरान पैदा होती हैं और पृथ्वी के अंदरूनी भाग से होकर सभी दिशाओं में आगे बढ़ती हैं। इसलिए इन्हें भूगर्भिक तरंगें कहा जाता है। ये दो प्रकार की होती है 
(अ) ‘‘p’’तरंगें – इन्हें प्राथमिक तरंगे भी कहते है ‘‘p’’ तरंगें तीव्र गति से चलने वाली तरंगें हैं और धरातल पर सबसे पहले पहॅुँचती हैं। ‘‘p’’ तरंगें ध्वनि तरंगों के सामान अनुदैर्ध्य तरंगें होती हैं। ये गैस, तरल व ठोस तीनों प्रकार के पदार्थों से गुजर सकती हैं। जब ये शैलों  में से  संचरित होती हैं तो शैलों में कम्पन पैदा होती है। 
(ब) ‘S’ तरंगें- ‘S’ तरंगें धरातल पर कुछ समय अंतराल के बाद पहुँचती हैं। इन्हें ‘द्वितीयक तरंगें’ कहते हैं। ‘S’ तरंगें केवल ठोस पदार्थों से ही गुजर सकती हैं। 
(ii) धरातलीय तरंगे 
भूगर्भिक तरंगों एवं धरातलीय शैलों के मध्य अन्योन्य क्रिया के कारण नई तरंगें उत्पन्न होती हैं जिन्हें धरातलीय तरंगें कहा जाता है। ये तरंगें धरातल के साथ-साथ चलती हैं। धरातलीय तरंगे अधिक विनाशकारी होती हैं। इनसे शैल विस्थापित होती हैं और इमारतें गिर जाती हैं।
भूकम्पीय तरंगों का संचरण 
जब भूकम्पीय तरंगें शैलों में संचरित होती है तो शैलों में कम्पन उत्पन्न करती है ‘P’ तरंगे तरंग संचरण की दिशा में कम्पन पैदा करती हैं। और संचरण गति की दिशा में पदार्थ पर दबाव डालती है। इसके फलस्वरूप शैलों में संकुचन व फैलाव पैदा होता है जबकि ‘S’ तरंगें तरंग संचरण की दिशा के समकोण पर कम्पन पैदा करती हैं। अतः ये जिस पदार्थ से गुजरती हैं उसमें उभार व गर्त बनाती हैं। धरातलीय तरंगे धरातल के साथ-साथ चलती हैं। धरातलीय तरंगे अधिक विनाशकारी होती हैं। इनसे शैल विस्थापित होती हैं और इमारतें गिर जाती हैं।
भूकम्पीय छाया क्षेत्र का उद्भव
भूकम्प के समय मुख्यतः तीन प्रकार की भूकम्पीय तरंगे उत्पन्न होती है जिन्हें भूकम्प मापी यंत्र (सिस्मोग्राफ) द्वारा अभिलेखित किया जाता है 
भूकम्पलेखी यंत्र पर दूरस्थ स्थानों से आने वाली भूकम्पीय तरंगें अभिलेखित होती हैं। फिर भी कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं जहाँ कोई भी भूकम्पीय तरंग अभिलेखित नहीं होती। ऐसे क्षेत्र को भूकम्पीय छाया क्षेत्र कहा जाता है। 
भूकम्पलेखी पर भूकम्प अधिकेन्द्र से 105° के भीतर सभी जगह ‘‘P’’ व ‘S’ दोनों ही तरंगों अभिलेखित होती हैं। और अधिकेन्द्र से 145° से परे केवल ‘‘P’ तरंगें अभिलेखित होती हैं ‘S’ तरंगें अभिलेखित होती हैं। अतः यह क्षेत्र ‘S’ तरंगों का छाया क्षेत्र है  भूकम्प अधिकेन्द्र से 105° और 145° के बीच का क्षेत्र जहाँ कोई भी भूकम्पीय तरंग अभिलेखित नहीं होती है दोनों प्रकार की तरगों के लिए छाया क्षेत्र  हैं। इसमें प्रमाणित होता है कि भूगर्भ के अन्दर घनत्व में विभिन्‍नता है, परिणाम स्वरूप भूकम्पीय तरंगों का मार्ग वक्राकार हो जाता है, चूंकि आंतरिक भाग की ओर घनत्व बढ़ता है अतः क्रोड में ये तरंगें वक्राकार होकर सतह की ओर अवतल हो जाती हैं  चूंकि ‘S’ तरंगें तरल पदार्थ से होकर नहीं गुजरती है इसलिए 2900 किमी से अधिक गहराई अर्थात भूक्रोड से विलुप्त हो जाती हैं इससे प्रमाणित होता है कि पृथ्वी का 2900 कि.मी. से अधिक गहराई वाला भाग तरल अवस्था में है जो केन्द्र के चारों ओर विस्तृत है।
भूकम्प के प्रकार 
विवर्तनिक भूकम्प – वे भूकम्प जो भ्रंशतल के किनारे चट्टानों के सरक जाने के कारण उत्पन्न होते हैं। विवर्तनिक भूकम्प कहलाते है 
नियात भूकम्प - खनन क्षेत्रों में कभी-कभी अत्यधिक खनन कार्य से भूमिगत खानों की छत ढह जाती है, जिससे हल्के झटके महसूस किए जाते हैं। इन्हें नियात भूकम्प कहा जाता है।
विस्पफोट भूकम्प - परमाणु व रासायनिक विस्पफोट से भूमि में कम्पन द्वारा उत्पन्न भूकम्प विस्पफोट भूकम्प कहलाते हैं।
बाँध जनित भूकम्प -जो भूकम्प बड़े बाँघ वाले क्षेत्रों में आते हैं, उन्हें बाँध जनित भूकम्प कहा जाता है।
भूकम्प के प्रभाव
भूकम्प एक प्राकृतिक आपदा है। जिसके निम्नलिखित प्रभाव दृष्टिगोचर होते है 
भूकंप से निम्नलिखित हानियाँ होती हैं :
1. भूकम्प से जन-धन की अपार हानि होती है। नगरों या अधिक घनी बस्तियों के पास भूकंप बहुत हानि पहुँचाते हैं। 
2.कई बार भूकंप से नदियों के मार्ग में रुकावट पड़ जाती है और उनका प्रवाह रुक जाता है। इस प्रकार नदी का जल समीपस्थ
भागों में फैल जाता है और बाढ़ आ जाती है। 
3. जब समुद्री भाग में भूकंप आता है तो बड़ी-बड़ी लहरें उठती हैं, जिससे जलयानों को भारी क्षति पहुँचती है। एवं तटीय भागों में समुद्री जल फैलकर भारी नुकसान करता है। जब भूकम्प का अधिकेन्द्र महासागरीय अधस्तल पर हो और भूकम्प की
तीव्रता बहुत अधिक हो। तो विशाल महासागरीय तरंगें उत्पन्न होती है जिसे सुनामी कहते है 
4. भूकंप से भू-पटल पर बड़े-बड़े गढ़े पड़ जाते हैं, जिससे यातायात में बड़ी बाधा पड़ती है। 
5. भूकप से पर्वतीय प्रदेशों में भू-स्खलन बहुत होते हैं, जिससे भारी क्षति होती है।
6. भूकंप से कई बार भीषण आग लग जाती है, जिससे बहुत नुकसान होता है।
पृथ्वी की संरचना
भूकम्प विज्ञानं एवं अन्य नवीनतम जानकारियों के आधार प् पृथ्वी की आन्तरिक संरचना को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है 
1- भूपर्पटी (Crust ) - यह पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत है महासागरों के नीचे भूपर्पटी की औसत मोटाई 5 कि.मी. तथा महाद्वीपों के नीचे इसकी औसत मोटाई 30 कि.मी. तक होती है इस परत की चट्टानों का औसत घनत्व 2.9 ग्राम प्रति घन सेमी है 
2- मैंटल (Mantle)-भूपर्पटी के नीचे 2900 किमी की गहराई तक मैंटल का विस्तार है। मैंटल का ऊपरी भाग दुर्बलता मण्डल कहलाता है। ज्वालामुखी उद्गार के दौरान जो लावा धारातल पर पहुँचता है उसका मुख्य स्त्रेत यही भाग है। भूपर्पटी एवं मैंटल का ऊपरी भाग मिलकर स्थलमंडल कहलाता हैं इसका घनत्व 4.5 ग्राम प्रति घन सेमी से अधिक होता है
3-क्रोड(Core)- 2900 से 6370 कि0मी0 तक की गहराई वाला यह भाग पृथ्वी का सबसे आंतरिक भाग है जिसका औसत घनत्व 11 ग्राम प्रति घन सेमी है इसके दो भाग है (i) बाह्य क्रोड (ii) आंतरिक क्रोड  बाह्य क्रोड तरल अवस्था में है यह 2900 कि.मी. से 5150 की.मी. तक विस्तृत है आंतरिक क्रोड ठोस अवस्था में है। जो 5150 की.मी. से पृथ्वी के केंद्र तक विस्तृत है  क्रोड भारी पदार्थों मुख्यतः निकिल व लोहे का बना है। इसे ‘निफे’ परत के नाम से भी जाना जाता है।


ज्वालामुखी 
ज्वालामुखी भूपटल के वे छिद्र जिनसे भूगर्भ का (तरल चट्टानी पदार्थ) मेग्मा आदि पदार्थ उद्गार के रूप में बाहर निकालता है यह तरल चट्टानी पदार्थ दुर्बलता मण्डल से निकल कर धरातल पर पहुँचता है। जब तक यह तरल पदार्थ मैंटल के ऊपरी भाग में रहता है, मैग्मा कहलाता है। जब यह भूपटल के ऊपर या धरातल पर पहुँचता है तो लावा कहलाता है। ज्वालामुखी उदगार के रूप में लावा, राख, धूलकण, गैसे आदि पदार्थ बाहर निकलते है 
ज्वालामुखी के प्रकार 
ज्वालामुखी उद्गार के आधार पर
(।) सक्रिय या जाग्रत ज्वालामुखी : वे ज्वालामुखी जिनसे हर समय उदगार होते रहते हैं। 
(2) सुषुप्त ज्वालामुखी: ऐसे ज्वालामुखी जो एक बार सक्रिय होने के पश्चात्‌ काफी लम्बे समय तक शांत हो जाते हैं और अचानक फिर सक्रिय हो जाते हैं उन्हें सुषुप्त ज्वालामुखी कहते हैं। 
(3) शांत या मृत ज्वालामुखी : जिन ज्वालामुखियों में लम्बे समय से उदगार नहीं हुए और न आगे होने की संभावना प्रतीत होती है, उन्हें शांत या मृत ज्वालामुखी कहते हैं।
शील्ड ज्वालामुखी 
इस प्रकार के ज्वालामुखी में विस्फोटक क्रिया कम होती है एवं उद्गार शांत ढंग से होता है | इसका मुख्य कारण लावा का पतला होना और गैस की तीव्रता में कमी होना है। लावा के पतले होने के कारण इन ज्वालामुखियों का ढाल तीव्र नहीं होता है हवाई द्वीप के ज्वालामुखी इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। 
मिश्रित ज्वालामुखी 
इन ज्वालामुखियों से अपेक्षाकृत गाढ़ा या चिपचिपाद्ध लावा बाहर निकालता हैं। प्रायः ये ज्वालामुखी भीषण विस्पफोटक होते हैं। इनसे लावा के साथ भारी मात्रा में ज्वलखण्डाश्मि पदार्थ व राख भी धरातल पर पहुँचती हैं। यह पदार्थ निकास नली के आस-पास परतों के रूप में जमा हो जाते हैं 
ज्वालामुखी कुंड 
ये पृथ्वी पर पाए जाने वाले सबसे अधिक विस्पफोटक ज्वालामुखी हैं। आमतौर पर ये इतने विस्पफोटक होते हैं कि जब इनमें विस्पफोट होता है तब वे उफँचा ढाँचा बनाने के बजाय स्वयं नीचे धँस जाते हैं। धँसे हुए विध्वंस गर्त (लावा के गिरने से जो गड्ढे बनते हैं) ही ज्वालामुखी कुंड ज्वालामुखी कहलाते है
बेसाल्ट प्रवाह क्षेत्र 
ये ज्वालामुखी अत्यध्कि तरल लावा उगलते हैं जो बहुत दूर तक बह निकलता है। संसार के कुछ भाग हजारों वर्ग कि.मी. घने लावा प्रवाह से ढके हैं। इनमें लावा प्रवाह क्रमानुसार होता है  भारत का दक्कन ट्रैप बेसाल्ट लावा प्रवाह क्षेत्र है। 
मध्य-महासागरीय कटक ज्वालामुखी
इन ज्वालामुखियों का उद्गार महासागरों में होता है। मध्य महासागरीय कटक एक शृंखला है  जो सभी महासागरीय बेसिनों में फैली है। इस कटक के मध्यवर्ती भाग में लगातार उद्गार होता रहता है।
ज्वालामुखी निर्मित स्थलरूप
ज्वालामुखी उद्गार से जो लावा निकलता है, उसके ठंडा होने से आग्नेय शैल बनती हैं। लावा का यह जमाव या तो धरातल पर पहुँच कर होता है या धरातल तक पहुँचने से पहले ही भूपटल के नीचे शैल परतों में ही हो जाता है।  लावा के ठंडा होने के स्थान के आधर पर आग्नेय शैलों का वर्गीकरण किया जाता है 
1. ज्वालामुखी शैल- जब लावा धरातल पर पहुँच कर ठंडा होता है तो उससे ज्वालामुखी शैलों का निर्माण होता है 
2. पातालीय शैल- जब लावा धरातल के नीचे ही ठंडा होकर जम जाता है तो उससे पातालीय शैलों का निर्माण होता है
अंतर्वेधी आकृतियाँ
जब लावा भूपटल के भीतर ही ठंडा हो जाता है तो बनने वाली आकृतियाँ अंतर्वेधी आकृतियाँ कहलाती हैं। ज्वालामुखी उदगार से निम्नलिखित अंतर्वेधी आकृतियाँ बनती है 
1. बैथोलिथ - यदि मैग्मा का बड़ा पिंड भूपर्पटी में अधिक गहराई पर ठंडा हो जाए तो यह एक गुंबद के आकार में विकसित हो जाता है। इन्हें बैथोलिथ कहा जाता है ये कई हजार वर्ग किलोमीटर में फैले होते हैं। 
2. लैकोलिथ -ये गुंबदनुमा विशाल अंतर्वेधी चट्टानें हैं जिनका तल समतल व एक पाइपरूपी वाहक नली से नीचे से जुड़ा होता है। यह बैथोलिथ की तुलना में छोटा होता है 
3. लेपोलिथ, फैकोलिथ व सिल - ऊपर उठते मैग्मा का कुछ भाग क्षितिज दिशा में पाए जाने वाले कमजोर धरातल में चला जाता है। यहाँ यह अलग-अलग आकृतियों में जमा हो जाता है। और लेपोलिथ, फैकोलिथ व सिल आकृतियाँ बनता है 
लैपोलिथ- आन्तरिक शैल्रों में मैग्मा के तश्तरीनुमा जमाव को लैपोलिथ कहते हैं।
फैकोलिथ –जब मैग्मा आन्तरिक शैल्रों में मोड़दार अवस्था में अपनति के ऊपर व अभिनति के तल में जमा हो जाता है। तो लहरदार चट्रानें बनती है जो एक निश्चित वाहक नली से मैग्मा भंडारों से जुड़ी होती हैं। यह ही फैकोलिथ कहलाती हैं।        
सिल व शीट - आन्तरिक शैल्रों में मैग्मा के क्षैतिज तल में एक चादर के रूप में ठंडा होकर ज़मने से निर्मित कम मोटाई वाली आकृति शीट तथा अधिक  मोटाई वाली आकृति सिल कहलाता है।
डाइक -आन्तरिक शैलों में मैग्मा के लगभग लम्बवत जमाव से निर्मित आकृति  डाइक कहलाती है 


  1. निम्नलिखित में से कौन भूगर्भ की जानकारी का प्रत्यक्ष साधन है
    (क) भूकंपीय तरंगें           (ख) गुरूत्वाकर्षण बल
    (ग) ज्वालामुखी             (घ) पृथ्वी का चुंबकत्व            (ग)
  2. दक्कन ट्रैप की शैल समूह किस प्रकार के ज्वालामुखी उद्गार का परिणाम है:
    (क) शील्ड                  (ख) मिश्र
    (ग) प्रवाह                   (घ) कुंड                        (ग)
  3. निम्नलिखित में से कौन सा स्थलमंडल को वर्णित करता है?
    (क) ऊपरी व निचले मैंटल  (ख) भूपटल व क्रोड
    (ग) भूपटल व ऊपरी मैंटल  (घ) मैंटल व क्रोड               (ग)
  4. निम्न में भूकंप तरंगें चट्टानों में संकुचन व फैलाव लाती है:
    (क) ‘P’ तरंगें            (ख) ‘S’ तरंगें
    (ग) धरातलीय तरंगें      (घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं        (क)
  5. भूगर्भीय तरंगें क्या हैं ?
    भूकम्प के उद्गम केंद्र से ऊर्जा के मुक्त होने के दौरान जो तरंगे उत्पन्न होती हैं और पृथ्वी के आंतरिक भाग से होकर सभी दिशाओं में आगे बढ़ती हैउन्हें भूगर्भीय तरंगें कहते है  
  6. भूगर्भ की जानकारी के लिए प्रत्यक्ष साधनों के नाम बताइए।
    भूगर्भ की जानकारी के लिए प्रत्यक्ष साधनों के नाम निम्नलिखित हैं:
    1. धरातलीय चट्टानें: खनन प्रक्रिया से पृथ्वी से ठोस पदार्थ धरातलीय चट्टानें प्राप्त होती है जिनके अध्ययन से हमें पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में जानकारी मिलती है।
    2. प्रवेधन-गहरे समुद्र में प्रवेधन’ व ‘समन्वित महासागरीय प्रवेधन परियोजना’ तथा अन्य गहरी खुदाई परियोजनाओं से गहराई से प्राप्त पदार्थों के विश्लेषण से हमें पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी मिलती है
    3.ज्वालामुखी उद्गार- ज्वालामुखी उद्गार से पृथ्वी के आंतरिक भाग से तरल मैग्मा  पृथ्वी के धरातल पर लावा के रूप में बहार आता है जिससे यह सिद्ध होता है कि पृथ्वी के आंतरिक भाग में कहीं ना कहीं एक तरल परत अवश्य पाई जाती है साथ ही यह लावा प्रयोगशाला अन्वेषण के लिए उपलब्ध होता है। 
  7. भूकंपीय तरंगें छाया क्षेत्र कैसे बनाती हैं ?
    सामान्यतः भूकंपलेखी यंत्र पर दूरस्थ स्थानों से आने वाली भूकंपीय तरंगें अभिलेखित होती है परन्तु कुछ क्षेत्र ऐसे होते है। जहाँ कोई भी भूकंपीय तरंग अभिलेखित नहीं होती है । ऐसे क्षेत्र को भूकंपीय छाया क्षेत्र कहा जाता है। पृृथ्वी के आंतरिक भाग में घनत्व परिवर्तन के कारण  'P' व 'S' तरंगें एक सीधाी दिशा में न चलकर वक्राकार होकर सतह की ओर अवतल हो जाती हैं इस कारण भूकंप अधिकेंद्र से 105° सेे 145° के बीच दोनों ही भूकंपीय तरंगें नहीं पहुंचती है और यह  क्षेत्र दोनों ही प्रकार की भूकंपीय तरंगों के लिए छाया क्षेत्र बन जाता है। ‘S’ तरंगें तरल माध्यम में गति नहीं करती है इस कारण ‘S’ तरंंगे भू-क्रोड से पहले ही विलुप्त हो जाती है तथा भूकंप अधिकेंद्र से 105° के परे पूूूरे क्षेत्र में ‘S’ तरंगें नहीं पहुँचतीं है और यह क्षेत्र ‘S’ तरंगों का छाया क्षेत्र बन जाताा है।
  8.  भूकंपीय गतिविधियों के अतिरिक्त भूगर्भ की जानकारी संबंधी अप्रत्यक्ष साधनों का संक्षेप में वर्णन करें
    भूगर्भ की जानकारी संबंधी अप्रत्यक्ष साधन निम्नलिखित है:-
    तापमान: सामान्यतः पृथ्वी की सतह से केन्द्र की ओर प्रति 32 मीटर की गहराई पर तापमान 1 °C की वृृद्धि होती है तापमान की इस वृद्धि दर के अनुसार भूगर्भ में सभी पदार्थ पिघली हुई अवस्था मे होने चाहिए परन्तु वास्तव मे ऐसा नही होता है। अधिाक गहराई के साथ बढ़ते दबाब के कारण चट्टानों के पिघलने का तापमान बिन्दु बढता जाता है एवं धारातल के नीचे तापमान की वृद्धि दर पृथ्वी के केन्द्र की ओर घटती जाती है। 
    दबाव : पृथ्वी के केन्द्र की ओर बढ़ते तापमान के कारण यहां पाये जाने वाले पदार्थ तरल रूप में होने चाहिए परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता है क्योंकि गहराई बढ़ने के साथ ऊपरी दबाव बढ़ता जाता है जिससे चट्टानों के पिघलने का तापमान बिन्दु (द्रवणांक) बढ़ जाता है अतः भूगर्भ में उच्च तापमान होते हुए भी अत्यधिक दबाव के कारण चट्टानें  ठोस रूप में पाई जाती है ।
    घनत्व :  पृ्थ्वी का औसत घनत्व 5.5 है जबकि धरातल का घनत्व 2.7 व केन्द्र का घनत्व 11 से अधिक है ।अर्थात पृथ्वी के केन्द्र की ओर निरन्तर दबाव बढ़ने व भारी पदार्थों के होने के कारण घनत्व भी बढ़ता जाता है। 
    उल्कापात - उल्कापिंड के अधययन से ज्ञात हुआ है कि उल्काओं की रचना में निकल और लोहा पाया जाता है।   चूंकि उल्कापिंड सौर्य परिवार का सदस्य है और पृथ्वी भी सौर्य परिवार का सदस्य है। अतः पृथ्वी के आन्तरिक भाग में भी निकल और लौहा पाया जाता है।
  9. भूकंपीय तरंगों के संचरण का उन चट्टानों पर प्रभाव बताएँ जिनसे होकर यह तरंगें गुजरती हैं
    जब भूकंपीय तरंगें संचरित होती हैं तो चट्टानों में कंपन पैदा होती है। ‘ P’ तरंगें तरंग संचरण की गति की दिशा के समानांतर कम्पन पैदा करती है। और तरंग संचरण की दिशा में पदार्थ पर दबाव डालती है। इस दबाव के कारण पदार्थ के घनत्व में भिन्नता आती है और शैलों में संकुचन व फैलाव उत्पन्न होता है। 'S' तरंगें तरंग संचरण
    गति की दिशा के लम्बवत कंपन पैदा करती हैं अतः ये जिस पदार्थ में से गुजरती हैं उसमें उभार व गर्त बनाती हैं। 
  10. अंतर्वेधि आकृतियों से आप क्या समझते हैं? विभिन्न अंतर्वेधि आकृतियों का संक्षेप में वर्णन करें ।
    ज्वालामुखी उद्गार के समय जब मैग्मा भूपटल के भीतर ही दरारों और संधियों में जमकर ठंडा हो जाता है तो कई आकृतियाँ बनती हैं। ये आकृतियाँ अंतर्वेधी आकृतियाँ कहलाती हैं।
    विभिन्न अंतर्वेधि आकृतियाँ निम्नलिखित हैं:-
    बैथोलिथ: जब मैग्मा का बड़ा पिंड भूपर्पटी में अधिक गहराई पर ठंडा होकर एक विशालकाय गुंबद के आकार में जमा हो जाता है तो बैथोलिथ का निर्माण होता है।
    लैकोलिथ: ये गुंबदनुमा विशाल अन्तर्वेधी चट्टानें हैं जिनका तल समतल व एक पाइपरूपी वाहक नली से नीचे से जुड़ा होता है।
    लैपोलिथ: जब मैग्मा आंतरिक शैलौं में तश्तरी के आकार में जम जाए, तो यह लैपोलिथ कहलाता है ।
    फैकोलिथ वलित चट्टानों के वलनशीर्ष अथवा वलनगर्त में मैग्मा के जमने से लेंस की आकृति में बनने वाली संरचना फैकोलिथ कहलाती है ।
    सिल व‌ शीट : जब मैग्मा आंतरिक चट्टानों पमें क्षैतिज तल में एक चादर के रूप में ठंडा होकर जम जाता है तो सिल या शीट का निर्माण होता है| कम मोटाई वाले जमाव को शीट व अधिक मोटाई वाले जमाव सिल कहलाते हैं ।
    डाइक: आंतरिक शैलौं में मैग्मा के लम्बवत जमाव से बनी संरचना डाइक कहलाती है ।
     
  1. भूकंप की तीव्रता किस स्केल पर मापी जाती है 
    रिक्टर स्केल पर
  2. भूकंप की तीव्रता किस उपकरण से मापी जाती है
    सिस्मोग्राफ(भूकंप मापी यंत्र)
  3. पृथ्वी की त्रिज्या कितनी है 
    पृथ्वी की त्रिज्या 63 70 किमी हैै
  4. भूकंप किसे कहते हैं
    भूगर्भिक शक्तियों के परिणामस्वरूप धारातल के किसी भाग में उत्पन्न होने वाले आकस्मिक कम्पन को भूकम्प कहते हैं
  5. सुनामी क्या है
    समुद्र में आने वाले भूकंपों द्वारा उत्पन्न ऊंची विनाशकारी सागरीय लहरों को जापानी भाषा में सुनामी कहते है
  6. भूकम्प का उद्गम केंद्र किसे कहते हैं
    भूगर्भ में जिस स्थान पर भूकम्प की उत्पत्ति होती है अर्थात जहां से ऊर्जा निकलती है उसे भूकंप का उद्गम केंद्र या अवकेंद्र कहते हैं
  7. अधिकेंद्र से क्या अभिप्राय है 
    भूकंप के उद्गम केंद्र के ठीक ऊपर (समकोण पर)धरातल पर स्थित वह बिंदु जहां भूकंपीय तरंगे सबसे पहले महसूस की जाती है अधिगम केंद्र कहलाता है
  8. पृथ्वी की आंतरिक संरचना का वर्णन कीजिए
    भूकम्प विज्ञानं एवं अन्य नवीनतम जानकारियों के आधार प् पृथ्वी की आन्तरिक संरचना को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है 
    1- भूपर्पटी (Crust ) - यह पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत है महासागरों के नीचे भूपर्पटी की औसत मोटाई 5 कि.मी. तथा महाद्वीपों के नीचे इसकी औसत मोटाई 30 कि.मी. तक होती है इस परत की चट्टानों का औसत घनत्व 2.9 ग्राम प्रति घन सेमी है 
    2- मैंटल (Mantle)-भूपर्पटी के नीचे 2900 किमी की गहराई तक मैंटल का विस्तार है। मैंटल का ऊपरी भाग दुर्बलता मण्डल कहलाता है। ज्वालामुखी उद्गार के दौरान जो लावा धारातल पर पहुँचता है उसका मुख्य स्त्रेत यही भाग है। भूपर्पटी एवं मैंटल का ऊपरी भाग मिलकर स्थलमंडल कहलाता हैं इसका घनत्व 4.5 ग्राम प्रति घन सेमी से अधिक होता है
    3-क्रोड(Core)- 2900 से 6370 कि0मी0 तक की गहराई वाला यह भाग पृथ्वी का सबसे आंतरिक भाग है जिसका औसत घनत्व 11 ग्राम प्रति घन सेमी है इसके दो भाग है (i) बाह्य क्रोड (ii) आंतरिक क्रोड  बाह्य क्रोड तरल अवस्था में है यह 2900 कि.मी. से 5150 की.मी. तक विस्तृत है आंतरिक क्रोड ठोस अवस्था में है। जो 5150 की.मी. से पृथ्वी के केंद्र तक विस्तृत है  क्रोड भारी पदार्थों मुख्यतः निकिल व लोहे का बना है। इसे ‘निफे’ परत के नाम से भी जाना जाता है।




2. पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास

  • एक तारक परिकल्पनाएं
    1. कान्ट की वायव्य राशि परिकल्पना
    जर्मन दार्शनिक कांट ने 1755 ई. में न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियमों पर आधारित वायव्य राशि परिकल्पना का प्रतिपादन किया। इसके अनुसार प्रारंभ में आद्य पदार्थ के कण ब्रह्माण्ड में फैले हुए थे। ये कण गुरुत्वाकर्षणबल के कारण आपस में टकराए जिससे ताप उत्पन्न हुआ और ये कण ठोस से द्रव व द्रव से गैस में बदल गए ये गैसीय पुंज एकत्रित होकर परिभ्रमण करने लगे एवं एक तप्त व गतिशील निहारिका का रूप धारण कर लिया। निहारिका के मध्यवर्ती भाग में उभार पैदा हुआ।  इस उभार के पदार्थ एक-एक छल्ले के रूप में निहारिका से पृथक होते गए और इनसे नौ ग्रहों का निर्माण हुआ । तथा निहारिका के शेष बचे भाग से सूर्य का निर्माण हुआ
    2. लाप्लास की नीहारिका परिकल्पना
    1796 ई॰ में गणितज्ञ लाप्लास ने कान्ट की परिकल्पना का सशोधित रूप प्रस्तुत किया जिसे नीहारिका परिकल्पना के नाम से जाना जाता है। इस परिकल्पना के अनुसार एक विशाल तप्त निहारिका से पहले एक छल्ला बाहर निकला जो कई छल्लों में विभाजित हो गया तथा ये छल्ले अपने पितृ छल्ले के चारों ओर घूमने लगे। बाद में इन्हीं चालों के शीतलन से ग्रहों का निर्माण हुआ और निहारिका के शेष बचे भाग से सूर्य का निर्माण हुआ
    द्वैतारक परिकल्पनाएं
    1. चैम्बरलिन व मोल्टन की ग्रहाणु परिकल्पना
    1900 ई॰ में चेम्बरलेन और मोल्टन ने कहा कि ब्रह्मांड में एक अन्य भ्रमणशील तारा सूर्य के नजदीक से गुजरा। इसके परिणामस्वरूप उस तारे के गुरूत्वाकर्षण से सूर्य के धरातल से सिगार के आकार का कुछ पदार्थ निकलकर अलग हो गया। जिसे चेम्बरलेन ने ग्राहणु कहा यह तारा जब सूर्य से दूर चला गया तो सूर्य के धरातल से बाहर निकला हुआ यह पदार्थ सूर्य के चारों तरफ घूमने लगा और यही धीरे –धीरे संघनित होकर ग्रहों के रूप में परिवर्तित हो गया।
    2. जेम्स जीन्स की ज्वारीय परिकल्पना 
    इस परिकल्पना के अनुसार सौर मंडल का निर्माण सूर्य एवं एक अन्य तारे के संयोग से हुआ है।सूर्य के निकट इस तारे के आने से सूर्य के बाह्य भाग में ज्वार उठने लगा जिसके कारण यह ज्वारीय भाग फिलामेंट के रूप में सूर्य से अलग हो गया तथा बाद में टूट कर सूर्य का चक्कर लगाने लगा। यही फिलामेंट सौर मंडल के विभिन्न ग्रहों की उत्पत्ति का कारण बना।
    3. वाईजास्कर की परिकल्पना  
    इस परिकल्पना के अनुसार सौर मंडल की उत्पत्ति अन्तरिक्ष में फैले हुए गैस एवं धूल के कणों के घनीभूत होने से हुई है जिसे निहारिका नाम दिया गया एक समय सूर्य इस निहारिका में प्रवेश कर गया कालांतर में निहारिका के गैसीय पदार्थ सूर्य के चरों और फैलकr घुमने लगे इन्ही गैसीय पदार्थों से ग्रहों का निर्माण हुआ
    बिग बैंग सिद्धांत/ महाविस्फोटक परिकल्पना 
    ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के सम्बंध में यह सर्वाधिक मान्य सिद्धांत है  इसे विस्तारित ब्रह्माण्ड परिकल्पना भी कहते है  यह सिद्धांत बेल्जियम विद्वान लेमैत्रे ने प्रस्तुत किया बिग बैंग सिद्धांत  के अनुसार ब्रह्मांड का विस्तार निम्न अवस्थाओं में हुआ हैः
    1. प्रारंभ में जिन पदार्थों से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई है वे पदार्थ अति छोटे गोलक के रूप में एक ही स्थान पर स्थित थे। जिसका आयतन अत्य सूक्ष्म एवं तापमान व घनत्व अनंत था।
    2. इस अति छोटे गोलक में भीषण विस्पफोट हुआ जिससे सारा पदार्थ अन्तरिक्ष में फ़ैल गया और वृहत विस्तार हुआ यह घटना  आज से लगभग 13.7 अरब वर्ष पहले हुई और आज भी जारी है 
    3. महा विस्फोट से 3 लाख वर्षों  के दौरान, तापमान 4500 ° केल्विन तक गिर गया और परमाणवीय पदार्थ का निर्माण हुआ। ब्रह्मांड पारदर्शी हो गया।


    तारों का निर्माण
    तारों का निर्माण लगभग 5 से 6 अरब वर्षों पहले हुआ। प्रारंभिक ब्रह्मांड में गुरुत्वाकर्षण बलों में भिन्नता के कारण छोटे-छोटे धुल कण व गैसों का एक विशाल बदल बना जिसे निहारिका कहा गया निहारिका से ही आकाशगंगा के निर्माण की शुरूआत हुई इस निहारिका में गैस के झुंड विकसित हुए। ये झुंड बढ़ते-बढ़ते घने गैसीय पिंड बने, जिनसे तारों का निर्माण आरंभ हुआ। एक आकाशगंगा असंख्य तारों का समूह है 
    प्रकाश वर्ष 
    प्रकाश वर्ष समय का नहीं वरन् दूरी का मात्रक है। एक साल में प्रकाश द्वारा तय गई दूरी प्रकाश वर्ष कहलाती है प्रकाश की गति 3 लाख कि0 मी0 प्रति सैकेंड होती है। एक प्रकाश वर्ष 9.46×1012 कि॰ मी॰ के बराबर होता है। 
    ग्रहों का निर्माण 
    ग्रहों का निर्माण  लगभग 4.6 अरब वर्ष पहले हुआ  ग्रहों का विकास निम्नलिखित तीन अवस्थाओं में हुआ-
    1. प्रथम अवस्था में निहारिका के अन्दर गैस के गुंथित झुण्डों में गुरुत्वाकर्षण बल के कारण गैसीय क्रोड का निर्माण होता है। गैसी क्रोड के चारों ओर गैस तथा धूल के कणों की चक्कर लगाती हुई तश्तरी विकसित हुई।
    2. द्वितीय अवस्था में गैसीय बादल का संघनन प्रारम्भ होता है। क्रोड के इधर-उधर का पदार्थ छोटे गोलाकार पिण्डों के रूप में विकसित हुआ तथा बाद में ग्रहाणुओं का रूप धारण किया। ग्रहाणु संघटन की क्रिया द्वारा बड़े पिण्ड बन गये तथा गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण एक-दूसरे जुड़ गये।
    3. अन्तिम अवस्था में ग्रहाणुओं के सहवर्धित होने से बड़े पिण्ड ग्रहों का रूप धारण कर गये।
    सौरमंडल 
    सूर्य, इसके चारों और चक्कर लगाने वाले ग्रह,  इनके उपग्रह, क्षुद्रग्रह, धूमकेतु तथा उल्काओं के परिवार को सौरमण्डल कहते हैं। नीहारिका को सौरमंडल का जनक माना जाता है 
    सौरमण्डल में आठ ग्रह हैं जिन्हें दो भागों में बनता गया है 
    1. भीतरी ग्रह
    सूर्य व क्षुद्रग्रहों की पट्टी के बीच स्थित चार ग्रह बुध्, शुक्र, पृथ्वी व मंगल भीतरी ग्रह कहलाते हैं ये ग्रह अपेक्षाकृत छोटे है ये ग्रह पृथ्वी की भाँति ही शैलों और धतुओं से बने हैं और अपेक्षाकृत अधिक घनत्व वाले ग्रह हैं। इसलिए इन्हें पार्थिव ग्रह भी कहते है 
    2. बाहरी ग्रह 
    बृहस्पति,शनि, अरुण व वरुण बाहरी ग्रह कहलाते हैं। ये ग्रह अपेक्षाकृत बड़े है जो गैसों से बने विशाल ग्रह है इन्हें जोवियन ग्रह भी कहते है  जोवियन का अर्थ है बृहस्पति की तरह । अतः ये ग्रह बृहस्पति की तरह बने है 
    पार्थिव ग्रहों व जोवियन ग्रहों में अंतर 
    1. पार्थिव ग्रह जनक तारे के बहुत समीप बनें जहाँ अत्यधिक तापमान के कारण गैसें संघनित नहीं हो पाईं जबकि जोवियन ग्रहों की रचना अपेक्षाकृत अधिक दूरी पर होने के कारन वहां गैसे संघनित हो गई ।
    2. सौर वायु सूर्य के नज़दीक ज्यादा शक्तिशाली थी। अतः पार्थिव ग्रहों से ज्यादा मात्रा में गैस व धूलकण उड़ा ले गई। जबकि जोवियन ग्रहों पर सौर पवन इतनी शक्तिशाली न होने के कारण इन ग्रहों से गैसों को नहीं हटा पाई।
    3. पार्थिव ग्रहों का आकार छोटे होने के कारण इनकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी कम रही जिसके परिणामस्वरूप इनसे निकली हुई गैसे इन पर रुकी नहीं रह सकी। जबकि जोवियन ग्रहों का आकर बड़ा होने के कारण इनकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति अधिक  रही जिसके कारण गैसे इन ग्रहों पर  रुकी रही ।
    पहले प्लूटो को भी ग्रह मन जाता था परुन्तु बाद में अंतर्राष्ट्रीय खगोलकी संगठन ने प्लूटो को ‘बोने ग्रह’ की संज्ञा दी ।
    चंद्रमा
    चंद्रमा पृथ्वी का अकेला प्राकृतिक उपग्रह है। सर जार्ज डार्विन के अनुसार  प्रारंभ में पृथ्वी व चंद्रमा तेजी से घूमते एक ही पिंड थे। यह पूरा पिंड डंबल की आकृति में परिवर्तित हुआ और अंततोगत्वा टूट गया। उनके अनुसार चंद्रमा का निमार्ण उसी पदार्थ से हुआ है जहाँ आज प्रशांत महासागर एक गर्त के रूप में मौजूद है।
    आधुनिक मत के अनुसार पृथ्वी के उपग्रह के रूप में चंद्रमा की उत्पत्ति एक बड़े टकराव का नतीजा है जिसे ‘द बिग स्प्लैट’ कहा गया है। ऐसा मानना है कि पृथ्वी के बनने के कुछ समय बाद ही एक बड़े आकार का पिंड पृथ्वी से टकराया। इस टकराव से पृथ्वी का एक हिस्सा टूटकर अंतरिक्ष में बिखर गया। टकराव से अलग हुआ यह पदार्थ फिर पृथ्वी के कक्ष में घूमने लगा और क्रमशः आज का चंद्रमा बना। यह घटना या चंद्रमा की उत्पत्ति लगभग 4.44 अरब वर्षों पहले हुई।
    पृथवी का उदभव
    प्रारंभ में पृथ्वी चट्टानी, गर्म और वीरान ग्रह थी, जिसका वायुमंडल विरल था जो हाइड्रोजन) व हीलीयम से बना था। यह आज की पृथ्वी के  वायुमंडल से बहुत अलग था। अतः कुछ ऐसी घटनाएँ एवं क्रियाएँ अवश्य हुई जिनके कारण चट्टानी, वीरान और गर्म पृथ्वी एक ऐसे सुंदर ग्रह में परिवर्तित हुई 
    पृथ्वी की संरचना परतदार है। वायुमंडल के बाहरी छोर से पृथ्वी के क्रोड तक जो पदार्थ हैं वे एक समान नहीं हैं। वायुमंडलीय पदार्थ का घनत्व सबसे कम है। पृथ्वी की सतह से इसके भीतरी भाग तक अनेक मंडल हैं और हर एक भाग के पदार्थ की अलग विशेषताएँ हैं।
    स्थलमंडल का विकास 
    पृथ्वी की रचना बहुत से ग्रहाणुओं के इकट्ठा होने से हुई है। पदार्थ गुरुत्वबल के कारण इक्कठा होने लगा जिसके कारण अत्यध्कि ऊष्मा उत्पन्न हुई। और उत्पन्न ताप से पदार्थ पिघलने लगा। ऐसा पृथ्वी की उत्पत्ति के दौरान और उत्पत्ति के तुरंत बाद हुआ। अत्यधिक ताप के कारण, पृथ्वी आंशिक रूप से द्रव अवस्था में रह गई और हल्के और भारी पदार्थ घनत्व में अंतर के कारण अलग होना शुरू हो गए। इसी अलगाव से भारी पदार्थ पृथ्वी के केन्द्र में चले गए और हल्के पदार्थ पृथ्वी की सतह पर आ गए। समय के साथ यह और ठंडे हुए और ठोस रूप में परिवर्तित होकर छोटे आकार के हो गए। अंततोगत्वा यह पृथ्वी की भूपर्पटी के रूप में विकसित हो गए। हल्के व भारी घनत्व वाले पदार्थों के पृथक होने की इस प्रक्रिया को विभेदन  कहा जाता है। चंद्रमा की उत्पत्ति के दौरान, भीषण संघट्ट के कारण, पृथ्वी का तापमान पुनः बढ़ा या फिर ऊर्जा उत्पन्न हुई और यह विभेदन का दूसरा चरण था। विभेदन की इस प्रक्रिया द्वारा पृथ्वी का पदार्थ अनेक परतों में अलग हो गया। पृथ्वी के धरातल से क्रोड तक कई परतें पाई जाती हैं। 
    वायुमंडल व जलमंडल का विकास
    प्रारंभिक वायुमंडल जिसमें हाइड्रोजन व हीलियम की अधिकता थी, सौर पवन के कारण पृथ्वी से दूर हो गया। ऐसा केवल पृथ्वी पर ही नहीं, वरन् सभी पार्थिव ग्रहों पर हुआ। अर्थात् सभी पार्थिव ग्रहों से, सौर पवन के प्रभाव के कारण, आदिकालिक वायुमंडल या तो दूर धकेल दिया गया या समाप्त हो गया। यह वायुमंडल के विकास की पहली अवस्था थी।
    पृथ्वी के ठंडा होने और विभेदन के दौरान, पृथ्वी के अंदरूनी भाग से बहुत सी गैसें व जलवाष्प बाहर निकले। इसी से आज के वायुमंडल का उद्भव हुआ। आरंभ में वायुमंडल में जलवाष्प, नाइट्रोजन, कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन व अमोनिया अधिक् मात्रा में, और स्वतंत्र ऑक्सीजन बहुत कम थी। वह प्रक्रिया जिससे पृथ्वी के भीतरी भाग से गैसें धरती पर आई इसे गैस उत्सर्जन कहा जाता है। लगातार ज्वालामुखी विस्पफोट से वायुमंडल में जलवाष्प व गैस बढ़ने लगी। पृथ्वी के ठंडा होने के साथ-साथ जलवाष्प का संघनन शुरू हो गया। वायुमंडल में उपस्थित कार्बन डाई ऑक्साइड के वर्षा के पानी में घुलने से तापमान में और अधिक गिरावट आई। फलस्वरूप अधिक संघनन व अत्यधिक वर्षा हुई। पृथ्वी के धरातल पर वर्षा का जल गर्तों में इकट्टा होने लगा, जिससे महासागर बने । लगभग 380 करोड़ साल पहले जीवन का विकास आरंभ हुआ। लंबे समय तक जीवन केवल महासागरों तक सीमित रहा। प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा ऑक्सीजन में बढ़ोतरी महासागरों की देन है। धीरे-धीरे महासागर ऑक्सीजन से संतृप्त हो गए 
    जीवन की उत्पत्ति
    पृथ्वी की उत्पत्ति का अंतिम चरण जीवन की उत्पत्ति व विकास से संबंधित है। पृथ्वी का आरंभिक वायुमंडल जीवन के विकास के लिए अनुकूल नहीं था। आधुनिक वैज्ञानिक, जीवन की उत्पत्ति को एक तरह की रासायनिक प्रतिक्रिया बताते हैं, जिससे पहले जटिल जैव बने और उनका समूहन हुआ। यह समूहन ऐसा था जो अपने आपको दोहराता था। और निर्जीव पदार्थ को जीवित तत्त्व में परिवर्तित कर सका। हमारे ग्रह पर जीवन के चिन्ह अलग-अलग समय की चट्टानों में पाए जाने वाले जीवाश्म के रूप में हैं। 300 करोड़ साल पुरानी भूगर्भिक शैलों में पाई जाने वाली सूक्ष्मदर्शी संरचना आज की शैवाल की संरचना से मिलती जुलती है। यह कल्पना की जा सकती है कि इससे पहले समय में साधारण संरचना वाली शैवाल रही होगी। यह माना जाता है कि जीवन का विकास लगभग 380 करोड़ वर्ष पहले आरंभ हुआ। 
    पृथ्वी के भू - वैज्ञानिक कालक्रम का विभाजन :-
    भूवैज्ञानिक समय में  इयान सबसे बड़ी और युग सबसे छोटी अवधि है
    पृथ्वी की उत्पत्ति से अब तक पृथ्वी के भू- वैज्ञानिक इतिहास को चार इयान में विभक्त किया गया है । हेडियन , आर्कीअन , प्रोटेरोज़ोइक  और दृश्यजीवी (फ़ैनेरोज़ोइक) इनमें से पहली तीन इओनों को सामूहिक रूप से कैम्ब्रीयनपूर्व महाइओन कहा जाता है। वर्तमान इयान फेनेरोजॉईक इयान कहलाता है |
    इओन को आगे महाकल्प (era) में विभाजित किया  जाता है।
    महाकल्प को कल्प (period) में विभाजित किया  जाता है।
    कल्प को युग (epoch) में विभाजित किया  जाता है।
    युग को काल (age) में विभाजित किया  जाता है।

  • पाठ्य पुस्तक के प्रश्न उत्तर 
  1. निम्नलिखित में से कौन सी संख्या पृथ्वी की आयु को प्रदर्शित करती है?
    (अ) 46 लाख वर्ष                (ब) 460 करोड़ वर्ष
    (स) 13.7 अरब वर्ष              (द) 13.7 खरब वर्ष           (ब)
  2. निम्न में कौन सी अवधि  सबसे लंबी है
    (अ) इओन              (ब) महाकल्प
    (स) कल्प              (द) युग                 (अ)
  3. निम्न में कौन सा तत्व वर्तमान वायुमंडल के निर्माण व संशोधन में सहायक नहीं है?
    (अ) सौर पवन              (ब) गैस उत्सर्जन
    (स) विभेदन              (द) प्रकाश संश्लेषण                 (अ)
  4. निम्नलिखित में से भीतरी ग्रह कौन से हैं
    (अ) पृथ्वी व सूर्य के बीच पाए जाने वाले ग्रह
    (ब) सूर्य व क्षुद्र ग्रहों की पट्टी के बीच पाए जाने वाले ग्रह
    (स) वे ग्रह जो गैसीय हैं।
    (द) बिना उपग्रह वाले ग्रह                                                  (ब)
  5. पृथ्वी पर जीवन निम्नलिखित में से लगभग कितने वर्षों पहले आरंभ हुआ।
    (अ) 1अरब 37 करोड़ वर्ष पहले      (ब) 460 करोड़ वर्ष पहले
    (स) 38 लाख वर्ष पहले      (द) 3 अरब, 80 करोड़ वर्ष पहले        (द)
  6. पार्थिव ग्रह चट्टानी क्यों हैं ?
    पार्थिव ग्रह  पृथ्वी की भाँति ही शैलों और धतुओं से बने हैं और अपेक्षाकृत अधिक घनत्व वाले ग्रह हैं। पार्थिव ग्रह जनक तारे के बहुत समीप बनें जहाँ अत्यधिक तापमान के कारण गैसें संघनित नहीं हो पाईं साथ ही  पार्थिव ग्रहों का आकार छोटे होने के कारण इनकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी कम रही जिसके परिणामस्वरूप इनसे निकली हुई गैसे इन पर रुकी नहीं रह सकी। इस कारण पार्थिव ग्रह चट्टानी है 
  7. पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बंधित दिये गए तर्कों में निम्न वैज्ञानिकों के मूलभूत अंतर बताएँ:
    (1) कान्ट व लाप्लेस         (2) चैम्बरलेन व मोल्टन
    कान्ट व लाप्लेस के अनुसार पृथ्वी का निर्माण धीमी गति से घुमती हुई निहारिका से हुआ है जिसका अवशिष्ट भाग बाद में सूर्य बना । अतः कान्ट व लाप्लेस का पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बंधित मत एकतारक परिकल्पना पर आधारित था
    चैम्बरलेन व मोल्टन के अनुसार ब्रह्मांड में एक अन्य भ्रमणशील तारा सूर्य के नजदीक से गुजरा। उस तारे के गुरूत्वाकर्षण से सूर्य के धरातल से सिगार के आकार का कुछ पदार्थ निकलकर अलग हो गया। यह तारा जब सूर्य से दूर चला गया तो सूर्य के धरातल से बाहर निकला हुआ पदार्थ सूर्य के चारों तरफ घूमने लगा और यही धीरे –धीरे संघनित होकर ग्रहों (पृथ्वी) में परिवर्तित हो गया। अतः चैम्बरलेन व मोल्टन का पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बंधित मत द्वैतारक परिकल्पना पर आधारित था
  8. विभेदन प्रक्रिया से आप क्या समक्षते हैं।
    पृथ्वी की उत्पत्ति के दौरान और उत्पत्ति के तुरंत बाद अत्यधिक ताप के कारण, पृथ्वी आंशिक रूप से द्रव अवस्था में रह गई और हल्के और भारी पदार्थ घनत्व में अंतर के कारण अलग होना शुरू हो गए। इसी अलगाव से भारी पदार्थ पृथ्वी के केन्द्र में चले गए और हल्के पदार्थ पृथ्वी की सतह पर आ गए। हल्के व भारी घनत्व वाले पदार्थों के पृथक होने की इस प्रक्रिया को विभेदन  कहा जाता है। 
  9. प्रारम्भिक काल में पृथ्वी के धरातल का स्वरूप क्या था ?
    प्रारंभ में पृथ्वी चट्टानी, गर्म और वीरान ग्रह थी, जिसका वायुमंडल विरल था जो हाइड्रोजन व हीलीयम से बना था। यह आज की पृथ्वी के  वायुमंडल से बहुत अलग था।
  10. पृथ्वी के वायुमंडल को निर्मित करने वाली प्रारंभिक गैसे कौन सी थीं ?
    पृथ्वी के वायुमंडल को निर्मित करने वाली प्रारंभिक गैसे हाइड्रोजन व हीलियम थी 
  11. बिग बैंग सिद्धांत का विस्तार से वर्णन करें।
    बिग बैंग सिद्धांत/ महाविस्फोटक परिकल्पना 
    ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के सम्बंध में यह सर्वाधिक मान्य सिद्धांत है  इसे विस्तारित ब्रह्माण्ड परिकल्पना भी कहते है  यह सिद्धांत बेल्जियम विद्वान लेमैत्रे ने प्रस्तुत किया बिग बैंग सिद्धांत  के अनुसार ब्रह्मांड का विस्तार निम्न अवस्थाओं में हुआ हैः
    1. प्रारंभ में जिन पदार्थों से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई है वे पदार्थ अति छोटे गोलक के रूप में एक ही स्थान पर स्थित थे। जिसका आयतन अत्य सूक्ष्म एवं तापमान व घनत्व अनंत था।
    2. इस अति छोटे गोलक में भीषण विस्पफोट हुआ जिससे सारा पदार्थ अन्तरिक्ष में फ़ैल गया और वृहत विस्तार हुआ यह घटना  आज से लगभग 13.7 अरब वर्ष पहले हुई और आज भी जारी है 
    3. महा विस्फोट से 3 लाख वर्षों  के दौरान, तापमान 4500 ° केल्विन तक गिर गया और परमाणवीय पदार्थ का निर्माण हुआ। ब्रह्मांड पारदर्शी हो गया।   
  12. पृथ्वी के विकास संबंधी अवस्थाओं को बताते हुए हर अवस्था/चरण को संक्षेप में वर्णित करें|
    प्रारंभ में पृथ्वी चट्टानी, गर्म और वीरान ग्रह थी, जिसका वायुमंडल विरल था जो हाइड्रोजन) व हीलीयम से बना था। यह आज की पृथ्वी के  वायुमंडल से बहुत अलग था। अतः कुछ ऐसी घटनाएँ एवं क्रियाएँ अवश्य हुई जिनके कारण चट्टानी, वीरान और गर्म पृथ्वी एक ऐसे सुंदर ग्रह में परिवर्तित हुई 
    1. स्थलमंडल का विकास 
    पृथ्वी की रचना ग्रहाणुओं के इकट्ठा होने से हुई है। पदार्थ गुरुत्वबल के कारण इक्कठा होने लगा जिससे अत्यध्कि ऊष्मा उत्पन्न हुई। और पदार्थ पिघलने लगा। ऐसा पृथ्वी की उत्पत्ति के दौरान और उत्पत्ति के तुरंत बाद हुआ। अत्यधिक ताप के कारण, पृथ्वी आंशिक रूप से द्रव अवस्था में रह गई और हल्के और भारी पदार्थ घनत्व में अंतर के कारण अलग होना शुरू हो गए। इसी अलगाव से भारी पदार्थ पृथ्वी के केन्द्र में चले गए और हल्के पदार्थ पृथ्वी की सतह पर आ गए। हल्के व भारी घनत्व वाले पदार्थों के पृथक होने की इस प्रक्रिया को विभेदन  कहा जाता है। चंद्रमा की उत्पत्ति के दौरान, भीषण संघट्ट के कारण, पृथ्वी का तापमान पुनः बढ़ा या फिर ऊर्जा उत्पन्न हुई और यह विभेदन का दूसरा चरण था। विभेदन की इस प्रक्रिया द्वारा पृथ्वी का पदार्थ अनेक परतों में अलग हो गया। पृथ्वी के धरातल से क्रोड तक कई परतें पाई जाती हैं। 
    2. वायुमंडल व जलमंडल का विकास
    प्रारंभिक वायुमंडल जिसमें हाइड्रोजन व हीलियम की अधिकता थी, सौर पवन के कारण पृथ्वी से दूर हो गया। पृथ्वी के ठंडा होने और विभेदन के दौरान, पृथ्वी के अंदरूनी भाग से बहुत सी गैसें व जलवाष्प बाहर निकले। इसी से आज के वायुमंडल का उद्भव हुआ। आरंभ में वायुमंडल में जलवाष्प, नाइट्रोजन, कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन व अमोनिया अधिक् मात्रा में, और स्वतंत्र ऑक्सीजन बहुत कम थी। वह प्रक्रिया जिससे पृथ्वी के भीतरी भाग से गैसें धरती पर आई इसे गैस उत्सर्जन कहा जाता है। लगातार ज्वालामुखी विस्पफोट से वायुमंडल में जलवाष्प व गैस बढ़ने लगी। पृथ्वी के ठंडा होने के साथ-साथ जलवाष्प का संघनन शुरू हो गया। वायुमंडल में उपस्थित कार्बन डाई ऑक्साइड के वर्षा के पानी में घुलने से तापमान में और अधिक गिरावट आई। फलस्वरूप अधिक संघनन व अत्यधिक वर्षा हुई। पृथ्वी के धरातल पर वर्षा का जल गर्तों में इकट्टा होने लगा, जिससे महासागर बने । लंबे समय तक जीवन केवल महासागरों तक सीमित रहा। प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा ऑक्सीजन में बढ़ोतरी महासागरों की देन है। धीरे-धीरे महासागर ऑक्सीजन से संतृप्त हो गए 
    3. जीवन की उत्पत्ति
    पृथ्वी की उत्पत्ति का अंतिम चरण जीवन की उत्पत्ति व विकास से संबंधित है। पृथ्वी का आरंभिक वायुमंडल जीवन के विकास के लिए अनुकूल नहीं था। आधुनिक वैज्ञानिक, जीवन की उत्पत्ति को एक तरह की रासायनिक प्रतिक्रिया बताते हैं, जिससे पहले जटिल जैव बने और उनका समूहन हुआ। यह समूहन ऐसा था जो अपने आपको दोहराता था। और निर्जीव पदार्थ को जीवित तत्त्व में परिवर्तित कर सका। 
  • अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न 
  1. पृथ्वी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में निहारिका परिकल्पना सिद्धान्त का प्रतिपादन किसने किया ?
    लाप्लास 
  2. सूर्य का निकटतम ग्रह कौनसा है 
    बुध
  3. प्रकाश की गति कितनी होती है 
    3 लाख किमी प्रति सेकण्ड 
  4. सौरमंडल का जनक किसे मन जाता है 
    निहारिका का 
  5. सौरमण्डल का सबसे छोटा ग्रह कौन-सा है ?
    बुध
  6. 24 अगस्त, 2006 में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय खगोल यूनियन में बौना ग्रह किसे माना गया है ?
    प्लूटो
  7. ग्रहों का निर्माण  कब हुआ 
    ग्रहों का निर्माण  लगभग 4.6 अरब वर्ष पहले हुआ 
  8. “द बिग स्प्लैट” की घटना किससे सम्बंधित है 
    “द बिग स्प्लैट की घटना” चंद्रमा की उत्पत्ति से सम्बंधित है 
  9. ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का सर्वमान्य सिद्धांत कौनसा है 
    बिग बैंग सिद्धांत 
  10. सौरमंडल के पार्थिव (भीतरी) ग्रहों के नाम लिखिए 
    बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल
  11. स्थिर अवस्था संकल्पना किसने दी
    हॉयल ने 
  12. सौरमंडल के जोवियन (बाहरी) ग्रहों के नाम लिखिए 
    बृहस्पति, शनि, युरेनस, नेपच्यून 
  13. आकाशगंगा क्या है 
    आकाशगंगा असंख्य तारों का समूह है 
  14. भूवैज्ञानिक समय में सबसे बड़ी और  सबसे छोटी अवधि क्या है
    भूवैज्ञानिक समय में  इयान सबसे बड़ी और युग सबसे छोटी अवधि है
  15. क्षुद्रग्रह किसे कहते है?
    सौरमंडल मे बाहरी ग्रहों एव  पार्थिव ग्रहो के बीच में लाखों छोटे पिंडों की एक पट्टी पाई जाती है उसे
    क्षुद्रग्रह कहते है।
  16. पृथ्वी के वायुमण्डल को निर्मित करने वाली प्रारम्भिक गैसें कौन-सी थीं ?
    पृथ्वी के वायुमण्डल को निर्मित करने वाली प्रारम्भिक गैसें हाइड्रोजन व हीलियम थीं।
  17. सौरमंडल किसे कहते है 
  18. सूर्य, इसके चारों और चक्कर लगाने वाले ग्रह,  इनके उपग्रह, क्षुद्रग्रह, धूमकेतु तथा उल्काओं के परिवार को सौरमण्डल कहते हैं।
  19. प्रकाश वर्ष किसे कहते है 
    प्रकाश वर्ष समय का नहीं वरन् दूरी का मात्रक है। एक साल में प्रकाश द्वारा तय गई दूरी  एक प्रकाश वर्ष कहलाती है
  20. चंद्रमा की उत्पत्ति किस प्रकार हुई 
    चंद्रमा की उत्पत्ति  के सम्बंध में दो प्रकार की विचारधाराए प्रचलित है
    1. सर जार्ज डार्विन के अनुसार  प्रारंभ में पृथ्वी व चंद्रमा तेजी से घूमते एक ही पिंड थे। यह पूरा पिंड डंबल की आकृति में परिवर्तित हुआ और अंततोगत्वा टूट गया। उनके अनुसार चंद्रमा का निमार्ण उसी पदार्थ से हुआ है जहाँ आज प्रशांत महासागर एक गर्त के रूप में मौजूद है।
    2. आधुनिक मत के अनुसार पृथ्वी के उपग्रह के रूप में चंद्रमा की उत्पत्ति एक बड़े टकराव का नतीजा है जिसे ‘द बिग स्प्लैट’ कहा गया है। ऐसा मानना है कि पृथ्वी के बनने के कुछ समय बाद ही एक बड़े आकार का पिंड पृथ्वी से टकराया। इस टकराव से पृथ्वी का एक हिस्सा टूटकर अंतरिक्ष में बिखर गया। टकराव से अलग हुआ यह पदार्थ फिर पृथ्वी के कक्ष में घूमने लगा और क्रमशः आज का चंद्रमा बना। यह घटना या चंद्रमा की उत्पत्ति लगभग 4.44 अरब वर्षों पहले हुई।
  21. पार्थिव ग्रहों व जोवियन ग्रहों में अंतर लिखिए
    1. पार्थिव ग्रह जनक तारे के बहुत समीप बनें जहाँ अत्यधिक तापमान के कारण गैसें संघनित नहीं हो पाईं जबकि जोवियन ग्रहों की रचना अपेक्षाकृत अधिक दूरी पर होने के कारन वहां गैसे संघनित हो गई ।
    2. सौर वायु सूर्य के नज़दीक ज्यादा शक्तिशाली थी। अतः पार्थिव ग्रहों से ज्यादा मात्रा में गैस व धूलकण उड़ा ले गई। जबकि जोवियन ग्रहों पर सौर पवन इतनी शक्तिशाली न होने के कारण इन ग्रहों से गैसों को नहीं हटा पाई।
    3. पार्थिव ग्रहों का आकार छोटे होने के कारण इनकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी कम रही जिसके परिणामस्वरूप इनसे निकली हुई गैसे इन पर रुकी नहीं रह सकी। जबकि जोवियन ग्रहों का आकर बड़ा होने के कारण इनकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति अधिक  रही जिसके कारण गैसे इन ग्रहों पर  रुकी रही ।
    पहले प्लूटो को भी ग्रह मन जाता था परुन्तु बाद में अंतर्राष्ट्रीय खगोलकी संगठन ने प्लूटो को ‘बोने ग्रह’ की संज्ञा दी ।